कवियों और दार्शनिकों ने भले ही क्रिएटिव होने के लिए आलस्य की तारीफ की है कि इससे आपको आंतरिक शांति मिलती है, लेकिन रोजाना की जिंदगी में आलस्य एक अपराध है. खास बात ये है कि ये बात जितनी लोगों पर लागू होती है उतनी ही ये पूंजी पर भी फिट बैठती है. महामारी ने हमें वित्तीय सुरक्षा की जरूरत का अहसास करा दिया है.
वित्तीय सुरक्षा को फाइनेंशियल एजूकेशन (financial education) के जरिए बढ़ावा दिया जा सकता है. इसकी शुरुआत करने की सबसे अच्छी जगह स्कूल हैं. हमारी सरकारों को इस बाबत गंभीरता से सोचना चाहिए कि स्कूली शिक्षा में फाइनेंशियल एजूकेशन को कैसे शुमार किया जा सकता है.
जो लोग कॉमर्स पढ़ते हैं उन्हें तो इस विषय की जानकारी होती है, लेकिन इसे सभी छात्रों को मुहैया कराया जाना चाहिए.
जैसा कि महामारी ने हमें सिखाया है, फाइनेंशियल एजूकेशन (financial education) न सिर्फ महत्वपूर्ण है, बल्कि हकीकत ये है कि इसकी अहमियत हमें स्कूलों में सिखाई गई कई दूसरी शिक्षाओं से भी ज्यादा है.
जिस समाज को ये पता होता है कि पैसों का कैसे बेहतर निवेश किया जा सकता है उसके लिए मुश्किल वक्त का सामना करना कहीं आसान होता है. जिसे निवेश करने की समझ है वो खर्च भी समझदारी से करता है.
स्कूल के फाइल ईयर में मौजूद छात्रों को वित्तीय मामलों की अहमियत, बजट बनाना, सेविंग करना, निवेश और यहां तक कि रिटायरमेंट के लिए सेविंग करने जैसी चीजें भी सिखाई जा सकती हैं.
इन सब में बेहद मामूली गणित का इस्तेमाल होता है और ज्यादातर छात्रों को स्कूल के आखिरी वर्षों में इतना गणित आता है.
चूंकि, मौजूदा दौर में बच्चे परिवार में काफी कुछ तय करने की हैसियत में होते हैं, ऐसे में ये सबक बच्चे अपने पेरेंट्स को भी सिखा सकते हैं.
इससे बड़ा बदलाव आ सकता है. वित्तीय रूप से जिम्मेदार छात्र हर परिवार के लिए एक एसेट हो सकता है और वक्त के साथ ये एक खुशहाल समाज को तैयार करने में कारगर साबित हो सकता है.
आप इसे पसंद करें या न करें, लेकिन पैसों की कला जीवन जीने की कला में तब्दील हो गई है.