अधिक लोगों तक पहुंचाना है बीमा का फायदा, तो कम किया जाए GST

प्रधानमंत्री जीवन ज्योति और प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा के प्रीमियम (330 रुपये और 12 रुपये सालाना) पर जीएसटी नहीं है.

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महामारी के दौर में लोगों का बीमा के प्रति रुझान बढा, नतीजा कारोबारी साल 2020-21 के दौरान नए प्रीमियम से वसूली में साढ़े सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई. PC: Pixabay

महामारी के दौर में लोगों का बीमा के प्रति रुझान बढा, नतीजा कारोबारी साल 2020-21 के दौरान नए प्रीमियम से वसूली में साढ़े सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई. PC: Pixabay

“बीमा आग्रह का विषय वस्तु है.” लंबे समय से आपने ये पंक्तियां सुनी होंगी. साफ शब्दों में मतलब यह हुआ है कि यह आपकी इच्छा है कि आप बीमा पॉलिसी खरीदते हैं. आपके इस फैसले में यह भी अहम है कि बीमा का प्रस्ताव रखने वाला किस तरह से आपके सामने प्रस्ताव रखता है. यह बातचीत कितनी कामयाब हुई है, इसकी बानगी आप अर्थव्यवस्था में बीमा की पैठ के आंकड़ों में देख सकते है जो मूल रुप से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में प्रीमियम का अनुपात है.

एसबीआई की रपट बताती है कि यह अनुपात कारोबारी साल 2000-01 में 2.71 फीसदी था, जो कारोबारी साल 2008-09 के अंत में 5.2 फीसदी पर आ गया. लेकिन उसके बाद इसमें कमी देखने को मिली और यह कारोबारी साल 2013-14 में 3.3 फीसदी पर आ गया. इसके बाद 2015 में प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना और प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना की बदौलत बीमा बाजार का स्वरूप बदला और फिर से पैठ बढ़ी और यह अनुपात कारोबारी साल 2019-20 के अंत में 4.20 फीसदी पर आ गया.

अब महामारी के दौर में लोगों का बीमा के प्रति रुझान बढा, नतीजा कारोबारी साल 2020-21 के दौरान नए प्रीमियम से वसूली में साढ़े सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई. संख्या के हिसाब से देखे, तो मई 2015 से जुलाई 2021 के बीच तमाम जीवन बीमा कंपनियों ने 17 करोड़ लोगों को बीमा सुरक्षा के दायरे में लिया, जबकि अकेले प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना में यह संख्या 10 करोड रही.

अब सवाल उठता है कि क्या यह संख्या 200 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की अर्थव्यवस्था और 130 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में पर्याप्त है? निश्चित तौर पर नहीं. आप पूछेंगे कि समस्या कहां है? आम तौर पर समस्या की बात आती है तो ज्यादात्तर लोगों को कहना होता है, “अगर आप नहीं रहे तो….” जैसे वाक्य का खुल कर इस्तेमाल होना जीवन बीमा पॉलिसी लेने के लिए हतोत्साहित करता है. वहीं, दूसरी ओर पॉलिसी बेचे जाने के बाद की असंतोजनक सेवा और पॉलिसी की ऊंची लागत भी जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा खरीदने में बाधा पैदा करता है.

पॉलिसी की लागत ऊंची होने की एक बड़ी वजह है, जीएसटी की दर. 30 जून 2017 तक बीमा के लिए सेवा कर (तमाम सेस के साथ) की दर 15 फीसदी हुआ करती थी, लेकिन पहली जुलाई से यह दर 18 फीसदी कर दी गयी. अब हाल यह है कि जीवन बीमा के मामले में टर्म इंश्योरेंस प्लान में पूरे प्रीमियम की राशि पर और यूलिप में प्रीमियम से निवेश घटाने के बाद बची राशि पर 18 फीसदी की दर से जीएसटी चुकाना होता है. एनडॉवमेंट प्लान की बात करें तो पहले साल की प्रीमियम पर 4.50 फीसदी की दर से से और बाकी के सालों के प्रीमियम पर 2.25 फीसदी की दर से जीएसटी देनी होगी. सिंगल प्रीमियम प़ॉलिसी के मामले मे यह दर 1.8 फीसदी है.

सामान्य बीमा में स्वास्थ्य औऱ वाहन सबसे अहम है. वाहन बीमा लेना तो आपके लिए अनिवार्य है और यहां पूरे प्रीमियम की रकम के 18 फीसदी के बराबर जीएसटी का भुगतान करना होगा. स्वास्थ्य बीमा वैकल्पिक है, लेकिन यहां भी जीएसटी की दर 18 फीसदी है. सीधे-सीधे कहें, तो प्रीमियम के पांचवे हिस्से से कुछ कम के बराबर आपको जीएसटी देना होता है.

अब देखिए कि जीएसटी का नहीं लगना या फिर जीएसटी की कम दर किस तरह से बीमा के प्रति लोगों को आकर्षित करती है. प्रधानमंत्री जीवन ज्योति और प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा के प्रीमियम (330 रुपये और 12 रुपये सालाना) पर जीएसटी नहीं है. सवा पांच सालों के भीतर जीवन ज्योति में 10 करोड़ से भी ज्यादा और बीमा सुरक्षा में 23 करोड़ से भी ज्यादा लोग शामिल हुए. दूसरी ओर सिंगल प्रीमियम पॉलिसी में साल भर के भीतर बढ़ोतरी 36 फीसदी से ज्यादा है, जिसके प्रीमियम पर दो फीसदी की दर से कम है. अब स्वास्थ्य बीमा की भी बात कर लीजिए. अगर कोविड ना होता, तो शायद इस तरह की बीमा सुरक्षा के प्रति वैसा रुझान नहीं होता.

यहां एक दलील दी जा सकती है कि जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा के लिए चुकाए प्रीमियम की बदौलत आयकर में छूट मिलती है. जीवन बीमा के लिए डेढ़ लाख रुपये तक की प्रीमिमय की रकम आपके कर योग्य आय से घटा दी जाती है, जबकि स्वास्ध्य बीमा के मामले में 25 हजार रुपये (वरिष्ठ नागरिकों के लिए 50 हजार रुपये और बुजुर्ग माता-पिता के लिए 50 हजार रुपये अतिरिक्त) तक की रकम. क्या यह पर्याप्त है, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि इससे जीएसटी के असर को कुछ खास कम नहीं किया जा सकता है.

मई 2017 में श्रीनगर की बैठक में जब से जीएसटी की दरें तय हुई, तभी से यह मुद्दा गरमाया हुआ है कि वित्तीय सेवाओं पर 18 फीसदी की दर कहां तक उचित है. यह इसलिए भी अहम हो जाता है, क्योंकि देश में सामाजिक सुरक्षा की बहुत मुकम्मल व्यवस्था नहीं है. साथ ही श्रमशक्ति का महज पांचवा हिस्सा ही नियमति तौर पर तनख्वाह पाता है. ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि बीमा व्यवस्था सरल, सहज व सस्ती हो और इस मामले में जीएसटी की दर में कमी अहम भूमिका निभा सकती है. मतलब साफ है कि बीमा को लेकर आग्रह तभी मजबूत होगा, जब इस पर जीएसटी की दर कम होगी.

Published - August 21, 2021, 03:17 IST