आत्म-निर्भर बनने की सोच आज की ग्लोबलाइजेशन की दुनिया की विचारधारा से मेल नहीं खाती. फिर भी आत्मनिर्भरता या खुद में काबिल होना एक ऐसा कंसेप्ट है, जिसका समय तेजी से बदलती दुनिया में भी अब तक चल रहा है. अमेरिकी निबंधकार राल्फ वाल्डो इमर्सन ने 1841 में आत्मनिर्भरता के बारे में लिखा था. महात्मा गांधी ने इसी आत्मनिर्भरता के आधार पर एक पूरा पॉलिटिकल-इकनॉमिक मॉडल तैयार कर के उसे स्वदेशी का नाम दिया था. स्वंत्रता आंदोलन से शुरू होकर देश के आजाद होने के बाद भी इसका बोलबाला रहा. फिर ग्लोबलाइजेशन की तेज लहर में यह कहीं गुम हो गया.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अब इसे फिर से जिंदा किया है. साथ ही आत्मनिर्भरता के नए नारे के साथ इसे पेश किया है, जो कोरोना महामारी के बाद आई आर्थिक सुस्ती से निकलने की लड़ाई में देश का हथियार बना है.
स्वेशी बुलाएं या आत्मनिर्भरता, दूसरों पर निर्भरता घटाने की यह सोच हमेशा से सराहनीय रही है. फिर चाहे ब्रिटिश राज से आजादी की पहल हो या ग्लोबलाइजेशन की होड़ में खुद को अलग खड़ा करने की. आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य देश में इकनॉमिक वैल्यू तैयार करना है. इससे रोजगार की समस्या हो खत्म करने में भी मदद मिलेगी.
सरकार ने बीते साल आत्मनिर्भरता के पांच स्तंभों को चिन्हित किया था – अर्थव्यवस्था जो विकास में उछाल लाए, इंफ्रास्ट्रक्चर जिससे देश मॉडर्न बने, तकनीक आधारित गवर्नेंस, जीवंत डेमोग्राफी और मजबूत मांग. ग्लोबल दुनिया में देशों का आपस पर निर्भर करना आम है, मगर जरूरत से ज्यादा निर्भरता सही नहीं है.
चीन का दुनिया की फैक्ट्री के रूप में उभरना एक बड़ी चुनौती है. हालांकि, महामारी ने कई कंपनियों को भारती पर ध्यान केंद्रित करने का बढ़ावा दिया है, जिससे नए मौके तैयार हो रहे हैं. देश उत्पादन का केंद्र बन सकता है. साथ ही विदेशी निवेश को आकर्षित करने में भी देश सफल रहा है.
इन सबसे बेहतर कल की उम्मीद की जा सकती है. सरकार को इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च बढ़ाने की जरूरत है, ताकि आत्मनिर्भरता के मार्ग पर आगे बढ़ा जा सके. देश के अंदर ही जितनी समस्याओं का हल मिल सकेगा, हम उतने आत्मनिर्भर होते जाएंगे.
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