एकाधिकार या मोनोपॉली खराब चीज है. डिजिटल मोनोपॉली में ऐसा होना और भी बुरा है क्योंकि इनके पास लोगों के विचार, व्यवहार और एक्शन को नियंत्रित करने की ताकत होती है. इंफोसिस के को-फाउंडर नंदन नीलेकणि को एक सरकारी पैनल का सदस्य बनाया गया है. ये पैनल डिजिटल कॉमर्स के लिए एक ओपन नेटवर्क पर काम करेगा ताकि डिजिटल मोनोपॉली को रोका जा सके. इस पैनल में कुल आठ लोग हैं.
इस पैनल में नंदन नीलेकणि को शामिल किया जाना एक अच्छा कदम है. इसकी दो वजहें हैं. नीलेकणि के पास दूरगामी परिणामों वाली सरकारी नीतियों पर काम करने का अच्छा-खासा अनुभव है और ऐसे में उनकी सलाह पैनल के काफी काम आएगी. इससे भी बड़ी बात ये है कि उनको लाने के पीछे मकसद देश के टैलेंट पूल को केवल सरकारी सीमाओं तक रोकने की बजाय इससे आगे बढ़कर बड़ी चुनौतियों में इस्तेमाल करने का है.
खास बात ये है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने भी तेजी से उभर रहीं डिजिटल फाइनेंशियल सर्विसेज में आ रही चुनौतियों पर अपनी चिंता जाहिर की है.
ये चिंताएं मोनोपॉली या एकाधिकार वाली प्रवृत्तियों को लेकर हैं. साथ ही डेटा प्राइवेसी और डेटा सिक्योरिटी भी चिंता के अहम पहलू हैं.
एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, फेसबुक और एमेजॉन जैसी बिग टेक कंपनियों ने अपने नेटवर्क और टेक्नोलॉजी का जाल बड़े पैमाने पर फैला दिया है. ये पूरी दुनिया के अरबों लोगों की विचार प्रक्रिया को प्रभावित करने की हैसियत में हैं.
इन कंपनियों के वर्चुअल वैश्विक साम्राज्य के बड़े पैमाने पर दुष्परिणाम हो सकते हैं.
इस तात्कालिक चुनौती से परे नंदन नीलेकणि का इस पैनल में आना उस व्यापक सबक की ओर इशारा कर रहा है जिसे सरकार को हर हालत में आगे बढ़ाना चाहिए. ये सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पार्टी की सीमाओं से ऊपर उठकर एक्सपर्ट्स को देश के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए साथ जोड़ा जा सकता है.
इसे किसी खास एरिया तक सीमित किया जा सकता है, लेकिन इसे सरकार की हरेक एक्टिविटी में शुमार किया जाना चाहिए.
भारत में बेहतरीन प्रतिभाएं मौजूद हैं और देश इन्हें इस मुश्किल वक्त में हाशिये पर नहीं छोड़ सकता है.