दिल्ली के कॉलेजों में दाखिले के लिए शत प्रतिशत कट ऑफ मार्क्स बहुत दुखद है. हमारी पीढ़ी के लिए 99% प्रतिशत मार्क्स लाकर भी एडमिशन नहीं मिलना सपने में भी नहीं सोचा जा सकता था. मुझे याद है कि एक टेस्ट में जब मैं 62% मार्क्स लाया, तो मेरे माता पिता इतने खुश हुए की सबने स्टीव मक्वीन अभिनित फ़िल्म ‘द ग्रेट एस्केप’ देखी. उस रात सभी पड़ोसियों को बुलाकर दावत दी गई और सबने छक कर खाना खाया. हममें जो सबसे तेज था, उसे 60% यानी फर्स्ट डिवीजन मिलता था. पचास के दशक में हम लोग इतने में ही खुशी से झूम उठते थे.
आजकल का बेतुका आकलन शिक्षा का मजाक उड़ा रहा है. यह वास्तव में किशोरों का अहित कर रहा है क्योंकि आगे वो इस दंभ के साथ मेहनत करेंगे कि वो शत प्रतिशत अंक लाने वाले हैं. बाहरी दुनिया का सामना करने के लिए ये तैयारी अधूरी होगी. इस तरह से शत प्रतिशत अंक लाने वालों को जीवन में आगे बढ़ने पर बड़ा जोर का झटका लगेगा जब उन्हें पता लगेगा कि ये अंक उन्हें किसी तरह की सुरक्षा या गारंटी नहीं दे रहे है. जब असल जिंदगी में वो आगे बढ़ेंगे और उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, तो उन्हें गहरी चोट लगेगी और वो डिप्रेशन में चले जायेंगे.
सिस्टम ने उन्हें शुरू में ही बता दिया है कि वो उत्तम हैं और उन्हें आगे ज्ञान प्राप्त करने की जरूरत नहीं रह गई है. ऐसे में ये प्रश्न भी उठता है कि ये एग्जामिनर कौन से हैं जो सौ में सौ अंक देते हैं. एक निबंध का आकलन करने के लिए वो कौन से पैमाने का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसमें इतने परीक्षार्थियों को सौ में सौ अंक आ जाते हैं कि एक नंबर कम वाले छात्र के लिए भी विश्विद्यालय का दरवाजा बंद हो जाते हैं.
वो स्कूल जो इस मूर्खता को बढ़ावा देते हैं, वो कुछ समय के लिए अपने झूठे उच्च नतीजों पर गर्व तो कर सकते हैं पर क्या वे यह समझते हैं कि वे उनके भविष्य पर कितनी गहरी चोट कर रहे हैं? ना तो कोई पूर्ण है, ना तो कोई होगा.
अब वक्त आ गया है कि सिस्टम में विवेक को वापस लाया जाए. आप देश के उन हज़ारों बच्चों को देखिए जिन्होंने 80 और 90 के दशक में अच्छे मार्क्स लाए मगर आज उपेक्षित हैं. ये टैलेंड की कितनी बड़ी बर्बादी है, एक विश्वविद्यालय जो बस और बस मार्क्स के आधार पर दाखिला लेता है और दूसरी चीजों को संज्ञान में नहीं लेता वो साफ तौर से गलत है.
कल्पना कीजिये कि आपके बेटे को 96% मार्क्स आए हैं मगर वो फूट-फूट कर रो रहा है क्योंकि उसे लगता है वो असफल है. वह बच्चे जिन्हें 80% मार्क्स आए हैं उन्हें केवल किसी साईकल रिपेयर शॉप के ऊपर छोटे से इंस्टिट्यूट में दाखिला मिलेगा.
मेलबर्न विश्वविद्यालय के एक सर्वे में देखा गया कि 79% छात्र चिंता में डूबे रहते हैं, 75.8% छात्रों की मनोदशा बिगड़ी रहती है और 59.2% छात्रों में निराशा और हीन भावना घर कर गई है. भले ही कुछ छात्रों में खराब दिमागी हालत स्कूल के कारण हुई हो, ये चुनौतियां उनके सामाजिक जीवन, गृहस्थ जीवन, शारीरिक स्वास्थ्य और भविष्य के कैरियर या संभावनाओं पर भी बुरा असर डालती हैं.
हम यहां पर उनकी बात कर रहें हैं जिन्होंने 90% अंक पाए हैं. जब एक 50% और 90% अंक लाने वाले छात्र में कोई गुणात्मक अंतर नहीं रह जाता, तब हम साफ साफ बोल सकते हैं कि सिस्टम की रेल पटरी से उतर गई है. जिस तरह से सब कुछ चल रहा है, आगे क्या होगा? अब क्या केवल वही आवेदन कर सकेंगे जिन्हें 100% से ज्यादा अंक आए होंगे! क्या ऐसा कोई भी नहीं है जो इस तरह के सिस्टम को इस पीढ़ी पर एक हमले की तरह देखता है न कि आशीर्वाद की तरह.