जिंदगी क्या है? वॉट्सऐप पर चैट करने और फेसबुक स्क्रोल करने के बाद बचने वाला समय. मजाक में कही जाने वाली यह बात आज कड़वा सच बन चुकी है. बच्चे तो बच्चे, बड़े भी सोशल मीडिया, इंटरनेट और गैजेट्स के आदी होते जा रहे हैं. दिनभर का ज्यादातर समय फोन पर चला जाता है. एक के बाद एक, कई सर्विसेज हमारे फोन से जुड़ चुकी हैं. इसमें कोई शक नहीं कि समय के साथ डिवाइस पर बीतने वाला समय बढ़ता ही चला जाना है.
महामारी के कारण यह आदत लोगों के बीच और बढ़ी है. घरबंदी के दौरान दुनिया से जुड़े रहने के लिए फोन, टैबलेट और लैपटॉप-कंप्यूटर ही हमारा सहारा बने. घरेलू बिल भरने से लेकर बैंक ट्रांजैक्शन, क्लासरूम लेक्चर, ऑफिस मीटिंग, रिश्तेदारों से जुड़ना, सब इन्हीं के माध्यम से होने लगा है.
हालांकि, इस तरह के जरूरी काम के चलते जितना डिवाइसेज का इस्तेमाल होना चाहिए, हम उससे कहीं अधिक कर रहे हैं. इनकी लत ऐसी लगी है कि आए दिन सुनने को मिल जाता है कि फोन में व्यस्त रहने के कारण किसी की मौत हो गई. कोई बिना ध्यान दिए रेलवे ट्रैक पर चलने लगा, तो किसी ने जोखिम भरी जगहों पर सेल्फी लेने की कोशिश की.
इन सबके बीच असल खतरा यह है कि बच्चों को इनकी लत लगती जा रही है. महामारी के कारण बनी इस आदत को लेकर काउंसिलर, सायकैट्रिस्ट चिंता जता रहे हैं. आंखों और हड्डियों से जुड़ी तकलीफें तो बड़ी आसानी हो ही सकती हैं. हर वक्त स्क्रीन में चिपके रहने के लिए आसपास के लोगों से संपर्क छोड़ देना उनके लिए मनोवैज्ञानिक परेशानियां भी खड़ी कर सकता है. मनोवैज्ञानिक चिंता जताते हैं कि समाज से कट कर रहने वाले ये बच्चे जब बड़े होंगे तो उनके सोच-विचार पर इसका असर पड़ेगा.
इसी तरह बच्चे क्या देख रहे हैं, इसपर नियंत्रण रखना भी माता-पिता के लिए बड़ी चुनौती है. कुल मिलाकर, तकनीकी स्तर पर एड्वांस्ड होने के लिए उठासा कदम हमें ही गिरा सकता है. देश मे फिलहाल 56 करोड़ से अधिक इंटरनेट यूजर हैं. इस मामले में हम चीन के बाद दुनिया में सबसे आगे हैं.
इंटरनेट और मोबाइल हैंडसेट सस्ते होने से लोगों तक इनकी पहुंच तेजी से बढ़ी है. मगर इसके साथ खड़ी होती परेशानियां बड़ी हैं. इनसे बचने के लिए माता-पिता और टीचरों को बच्चों को बाहर निकलने, पेंटिंग करने, किताबें पढ़ने जैसी आदतें डलवानी होंगी. हजारों वर्षों से मनुष्य सामाजिक जीव रहे हैं. अब हम खुद के ही आविष्कार के गुलाम नहीं बन सकते.