मौजूदा दौर में स्वास्थ्य बीमा अनिवार्य सा हो गया है. महामारी ने हमें सिखाया है कि यह वित्तीय नियोजन का एक अभिन्न अंग क्यों है. पिछले साल नियामक ने स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों में बहिष्करण को युक्तिसंगत और मानकीकृत करने के लिए बदलाव किए. पिछले साल बीमा नियामक द्वारा किए गए परिवर्तनों के बाद बीमाकर्ताओं द्वारा उच्च जोखिम माने जाने वाली एचआईवी, पार्किंसंस और अल्जाइमर जैसी 17 मौजूदा बीमारियों के बावजूद उपभोक्ता हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी खरीद सकते हैं.
इसी तरह मानसिक बीमारी के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक और मेनोपॉज संबंधी विकारों जैसी 11 अन्य बीमारियों को भी बहिष्करण सूची से हटा दिया गया है. हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी के लिए नियामक द्वारा एक संरचित दृष्टिकोण की घोषणा के बाद बीमाकर्ताओं को भी इसमें सहयोग करना चाहिए. बीमाकर्ताओं को अब नई हेल्थ पॉलिसीज के अंदर व्यापक कवरेज के बारे में लोगों के बीच जागरूकता पैदा करनी चाहिए. यदि वे इस पर आगे नहीं बढ़ते हैं, तो नियामक को अनुपालन सुनिश्चित करना होगा.
इन बीमारियों के शामिल होने से स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों का दायरा कई गुना बढ़ गया है. एक समय था जब बीमा कंपनियां ऐसी कई बीमारियों के लिए कवरेज देने से इनकार कर देती थीं. लेकिन अब पॉलिसीधारक पार्किंसंस और अल्जाइमर जैसी उच्च जोखिम वाली स्थितियों में भी स्वास्थ्य बीमा खरीद सकते हैं. आपको केवल पॉलिसी खरीदते समय बीमाकर्ता को अपनी स्थिति बताने की आवश्यकता है. नियामकीय दिशानिर्देशों के अनुसार, बीमा कंपनियां किसी मरीज को कवरेज देने से इनकार नहीं कर सकती हैं.
इस मानकीकरण और कवर के विस्तार के बाद स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम दरों में भी वृद्धि हुई है, लेकिन अभी भी गेप को कवर करने के लिए बीमाकर्ताओं की ओर से बहुत कुछ करने की आवश्यकता है. नियामक ने पहले ही संरचित दृष्टिकोण दे दिया है, अब चुनौती इन परिवर्तनों को बीमा कंपनी के स्तर पर लागू करने की है.
बीमाकर्ताओं द्वारा दिशानिर्देशों का पालन करवाने में इरडा की भूमिका होनी चाहिए. अप्रैल 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और कहना पड़ा कि सिज़ोफ्रेनिया का उपचार प्रतिपूर्ति योग्य है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह ने कहा कि ऐसा करने में किसी भी तरह की देरी बीमा कंपनियों द्वारा “कानून के शब्दों और भावना के विपरीत” कार्य होगा.