सरकार की ड्राफ्ट ई-कॉमर्स गाइडलाइंस में फ्लैश सेल के नाम पर चल रहे फर्जी डिस्काउंट के खेल को खत्म करने की बात की गई है. इसके पीछे आधिकारिक तर्क कंज्यूमर्स को इस तरह की लुभावनी दिखने वाली डील्स से बचाना है.
लेकिन, इससे एक उलट राय भी है जिसमें कहा जा रहा है कि फ्लैश सेल्स से खुदरा दुकानदारों को नुकसान होता है जो कि राजनीतिक पार्टियों के लिए एक बड़ा वोट बैंक है. असंगठित क्षेत्र के लाखों दुकानदार कई राजनीतिक पार्टियों का बड़ा बेस हैं, खासतौर पर सत्ताधारी पार्टी की इनमें गहरी पैठ है.
मौजूदा वक्त में ग्राहक काफी समझदार हैं और वे अपना भला-बुरा अच्छी तरह से समझते हैं. रिटेलर्स भी ग्राहकों को हर हाल में अपने साथ जोड़ना चाहते हैं. रिटेल बिजनेस एक टेस्ट मैच है और इसमें तुरत-फुरत कुछ नहीं होता.
अगर फ्लैश सेल्स से संबंधित नियमों को सख्त करने का मकसद देश के असंगठित रिटेल आउटलेट्स को संतुष्ट करना है तो ये इन्हें कारोबार में बनाए रखने का सही तरीका नहीं कहा जा सकता है.
संगठित और असंगठिक क्षेत्र के रिटेल के लिए प्रतिस्पर्धा का समान मैदान बनाना कंज्यूमर्स के हितों की बलि चढ़ाकर तैयार नहीं किया जा सकता है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि ये स्टोर्स ही कोविड महामारी की पहली लहर के दौरान परिवारों के लिए बड़ा सहारा रहे हैं क्योंकि उस दौरान ई-कॉमर्स कंपनियां लॉकडाउन के चलते कामकाज नहीं कर पा रही थीं. इन स्टोर्स को वित्तीय, लॉजिस्टिक्स और टेक्नोलॉजी सपोर्ट मुहैया कराया जाना चाहिए.
ई-कॉमर्स ऑफर्स पर लगाई गई कोई भी पाबंदी अंत में कंज्यूमर्स के लिए विकल्प सीमित करेगा और ऐसी परिस्थित नहीं पैदा होनी चाहिए.
सरकार को ये बात ध्यान रखनी चाहिए कि कंज्यूमर ही राजा है. जो भी फायदा कंज्यूमर को मिलता है उसका स्वागत होना चाहिए और इसे रेगुलेशंस के जरिए रोका नहीं जाना चाहिए. औपचारिक और अनौपचारिक चेन्स के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए ताकि इसमें कंज्यूमर ही विजेता बनकर उभरे.
सरकारों को ऐसा ईकोसिस्टम बनाना चाहिए जिससे खपत बढ़े. सरकार ने स्पष्ट किया है कि वह केवल झूठे ऑफर देने वाली कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई करना चाहती है. ये अच्छी चीज है, लेकिन किसी भी तरह का संपूर्ण बैन नहीं लगाना चाहिए.