बट्टा खाता (Write off). शब्दों की यह जोड़ी बेहद पुरानी है, लेकिन उपयोग कभी पुराना नहीं पड़ा. सबसे दिलचस्प तो तब होता है जब संसद के हर सत्र के दौरान, दोनों में सदनों में कई सदस्य ये सवाल पूछते है कि फंसे हुए कर्ज यानी NPA में से कितनी रकम बट्टे खाते में डाले गए. सरकार जवाब देती है, …. करोड़ और बट्टे खाते में डाले जाने का मतलब क्या है. फिर भी अगले दिन सुर्खियों में और समाचार में रकम की ही चर्चा होती है, बाकी स्पष्टीकरण या तो गिने-चुने शब्दों में निपटा दिया जाता है या फिर छोड़ दिया जाता है.
बात आगे बढ़े, उसके पहले ताजा आंकडों पर नजर डाल लेते हैं. संसद के मौजूदा सत्र के दौरान वित्त राज्य मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने लिखित में जानकारी- दी कि तमाम अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों (Scheduled Commercial Banks or SCBs) ने वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान 2,36,265 करोड़ रुपये के कर्ज बट्टे खाते में डाले. यह रकम वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान 2,34,170 करोड़ रुपये रही, वहीं इस वित्त वर्ष (2020-21) की पहली तीन तिमाहियों (अप्रैल-जून, जुलाई-सितम्बर और अक्टूबर-दिसम्बर) में कुल मिलाकर 1,15,038 करोड़ रुपये की रकम बट्टे खाते में डाले गए.
अब आइए समझे कि आखिरकार बट्टे खाते में डाले जाने की मतलब क्या है? पहले तो ये जानिए कि फंसा हुआ कर्ज यानी एनपीए क्या होता है? सीधे-सीधे कहे तो अगर कर्ज की तीन लगातार मासिक किस्ते नहीं आयी तो उसे बैंक एनपीए करार दे देता है. अब इस एनपीए को तीन किस्म में बांटा जाता है – सब स्टैंटर्ड असेट ( जो कर्ज खाता 12 महीने तक एनपीए बना रहे), डाउटफुल असेट (जो कर्ज खाता 12 महीने तक सब स्टैंटर्ड असेट बना रहे) और लॉस अकाउंट (जहां कर्ज या तो वसूल नही किया जा सके या फिर जिस कर्ज की वसूली में बहुत ही ना के बराबर या मामूली रकम मिले).
रिजर्व बैंक के दिशानिर्देशों के मुताबिक, ऐसे फंसे हुए कर्ज, जिसके लिए चार साल पूरे होने पर, बैंक अपने खाते में पूरी रकम का प्रावधान कर देते हैं, उसे बैंक के बैलेंश शीट से हटा दिया जाता है. इसे ही राइट ऑफ या बट्टे खाते में डाले जाने का नाम दिया जाता है. आप पूछ सकते हैं कि बैंक ऐसा क्यों करते हैं? इसका जवाब ये है कि इसके पीछे मुख्य रुप से तीन मकसद होते है. एक, बैलैंश शीट पर फंसी हुई देनदारी के दवाब को दुरुस्त करना. दूसरा, कर छूट का फायदा उठाना. और तीसरा, उपलब्ध पूंजी का बेहतर तरीके से इस्तेमाल करना. इन सब को लेकर रिजर्व बैंक के दिशानिर्देशों के मुताबिक, बैंक के निदेशक बोर्ड से नीति मंजूर करायी जाती है और फिर उस पर अमल किया जाता है.
अब आपका अगला सवाल होगा कि क्या बट्टे खाते में डाले जाने वाले कर्ज को भूला दिया जाता है? जवाब है, नहीं. बट्टे खाते में डाले जाने के बाद भी कर्ज की वसूली की जानी जाती है तो इसका मतलब ये हुआ कि जिनका कर्ज बट्टे खाते में डाले गए, उन्हे खुश होने की जरुरत नहीं, बल्कि उनसे वसूली होगी. ऐसे कर्ज की वसूली के लिए बैंक को नीति तैयार करनी होती है जिसे निदेशक बोर्ड से मंजूरी मिलने के बाद अमल में लाया जाता है. नीति के तहत वसूली का तरीका, महीने-तीन महीने-छह महीने या साल का लक्ष्य तय किया जाता है.
वसूली के लिए कई तरीके हैं. मसलन, बैंक दिवानी अदालत या फिर डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल में दावा ठोक सकते हैं. Securitisation and Reconstruction of Financial Assets and Enforcement of Security Interest Act, 2002 यानी सरफेसी कानून के तहत कार्रवाई कर सकते हैं. राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में आवेदन डाल सकते हैं. इन सब के अलावा आपसी बातचीत के जरिए समझौते का रास्ता तो है ही या फिर फंसे हुए कर्ज को बेचने का भी विकल्प है. हर मामले की अपनी प्रकृति होती है और उसे हिसाब से उसे निबटाने का विकल्प बैंक अपनाते हैं.
बीते दो कारोबारी साल (2018-19, 2019-20) और मौजूदा कारोबारी साल के पहले नौ महीने में कुल मिलाकर 3,68,636 करोड़ रुपये की कुल वसूली हुई है, जिसमें बट्टे खाते में डाले गए कर्ज के नाम 68,219 करोड़ रुपये रहे. यह रकम बट्टे खाते में डाली गई पुरानी रकम का हिस्सा हो सकती है. अब आप समझ गए होंगे कि बट्टे खाते में डाले जाने के बावजूद भी वसूली होती है और उससे बैंकों को अपने पैसे का कुछ हिस्सा पाने में मदद मिलती है. बट्टे खाते में डाले जाने का मतलब सब कुछ खत्म होना नहीं.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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