कोविड-19 महामारी ने गुजरे एक साल में देश को दो मोर्चों पर जबरदस्त झटका दिया है. इसने एक तरफ तो स्वास्थ्य को लेकर आम लोगों की जिंदगियों को अस्त-व्यस्त कर दिया है. दूसरी तरफ, इसके गंभीर आर्थिक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं. पिछले साल मार्च में लगे लॉकडाउन के बाद बड़ी तादाद में लोगों की नौकरियां गईं या उन्हें सैलरी में कटौती का सामना करना पड़ा है.
हालांकि, साल के आखिर में कोविड के मामले थमने और पाबंदियों के हटने के बाद आर्थिक रिकवरी शुरू हुई और एक बार फिर से लोगों को अपनी कमाई बहाल होने की उम्मीद जगी. हालात ठीक होने शुरू ही हुए थे कि कोविड की दूसरी लहर एक तूफान की मानिंद आई और जनजीवन और अर्थव्यवस्था को तबाही के दौर में खींच ले गई.
पिछले साल से अब तक इस मुश्किल वक्त में मनरेगा ही सरकार की मदद में सबसे आई है. इस योजना के तहत शहरों से गांव पहुंचे गरीबों को रोजगार मिल सका है. लेकिन, तमाम रिपोर्ट कहती हैं कि इसका बजट अपर्याप्त है और गांवों में काम की भारी मांग है. इसे तभी पूरा किया जा सकता है जबकि सरकार मनरेगा के बजट पर लगी लिमिट को खत्म कर दे.
असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर आफत
पिछले साल मार्च से लेकर अभी तक के दौर में इस महामारी ने सबसे ज्यादा गरीब तबके और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर असर डाला है.
अब जो आंकड़े आ रहे हैं उनसे इस बात की गवाही मिल रही है. मार्च से अगस्त 2020 के बीच एक औसत परिवार की कमाई 17% घटी है.
महामारी के दौर में नौकरी गंवाने की वजह से लाखों की तादाद में असंगठित क्षेत्र के मजदूर अपने गांवों की ओर वापस लौटे हैं. गांवों में इनके लिए अपने परिवार के भरण-पोषण का एक बड़ा जरिया मनरेगा (MNREGA) रहा है. हालांकि, कई ग्राउंड रिपोर्ट्स से लगातार इस बात का संकेत मिला है कि फंड्स की कमी के चलते काम की मांग को कम किया जा रहा है. इसका सीधा मतलब ये है कि लोगों को मनरेगा में पर्याप्त काम नहीं मिल पा रहा है.
73,000 करोड़ का बजट
वित्त वर्ष 2021-22 के लिए सरकार ने मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया है. इससे पिछले साल यानी 2020-21 में सरकार ने इस मद में 61,500 करोड़ रुपये आवंटित किए थे. 2021-22 के लिए आवंटित रकम वैसे तो 2020-21 के मुकाबले ज्यादा है, लेकिन ये 1,11,500 करोड़ रुपये के संशोधित अनुमान से 34.5 फीसदी कम है.
इस बात की ओर कई दफा इशारा किया जा चुका है कि सरकार को मनरेगा का बजट बढ़ाना चाहिए और मौजूदा आवंटन लोगों की घर-चलाने लायक कमाई के साथ ही जितनी ग्रामीण इलाकों में काम की मांग है, उसे पूरा नहीं कर पा रहा है. चंद दिन पहले ही RBI के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने भी सरकार से मांग की है कि मौजूदा हालात में मनरेगा पर सरकार को ज्यादा से ज्यादा रकम खर्च करनी चाहिए ताकि मुश्किल में फंसी गरीब आबादी को मदद मिल सके.
कभी मनरेगा का मखौल उड़ाया, लेकिन अब यही बनी सहारा
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 फरवरी 2015 को लोकसभा में मनरेगा का मखौल उड़ाते हुए इसे कांग्रेस की नाकामियों का स्मारक बताया था.
लेकिन, मनरेगा ही नौकरी गंवा चुके बड़ी तादाद में मजदूरों की मदद करने में सरकार का सबसे बड़ा सहारा बन रही है.
ग्राउंड की रिपोर्ट्स बताती हैं कि कोविड की पहली लहर में अगर शहरों के मुकाबले गांव टिके रहने में सफल रहे तो इसकी बड़ी वजह ये थी कि हाशिए पर मौजूद तबके को मनरेगा ने कमाई का जरिया दिया और दूसरी ओर, मुफ्त राशन ने लोगों को परिवार का पेट भरने का सहारा दिया.
लेकिन, कोविड की दूसरी लहर गांवों में पहुंची है और वहां भी इसके चलते बड़े पैमाने पर जनहानि हुई है. शहर पहले ही बदहाल हैं.
अमीरी-गरीबी का बढ़ता फासला
CMIE के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी की दर मई में बढ़कर 12 फीसदी पर पहुंच गई है. कोविड की दूसरी लहर से ही 1 करोड़ लोगों की नौकरियां गई हैं और देश के 97 फीसदी परिवारों की कमाई में गिरावट आई है.
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के एक साल में 23 करोड़ लोग गरीबी में चले गए हैं. इस दौरान ग्रामीण भारत में गरीबी की दर में 15 फीसदी जबकि शहरी भारत में ये दर 20 फीसदी बढ़ी है.
बजट की लिमिट खत्म करे सरकार
सरकार ने नवंबर तक प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत गरीबों को मुफ्त राशन देने का ऐलान किया है. साथ ही सरकार को अब मनरेगा के बजट को भी असीमित कर देना चाहिए और इसे गांवों में काम की पैदा होने वाली मांग के साथ सीधे जोड़ देना चाहिए. मौजूदा हालात में लोगों की मदद, अमीरी-गरीबी की खाई और गरीबों को कमाई सुनिश्चित कराने का इससे अच्छा तरीका कोई नहीं हो सकता है.
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