new agriculture law : कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे कथित किसान आंदोलन में से तमाम राजनीतिक सवालों को अलग कर दिया जाए, तो इसने भारतीय कृषि के भविष्य के लिए भी कुछ बेहद अहम सवाल सामने रखे हैं. इसमें सबसे बड़ा सवाल न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की ‘पवित्रता’ का है. किसानों के लिए MSP का सवाल सांड के सामने लाल कपड़ा दिखाने जैसा हो गया है. कृषि सुधारों (new agriculture law)के प्रति तमाम प्रतिबद्धताएं जताने के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार भी MSP के प्रति अपनी निष्ठा जताते थक नहीं रही है. यह अपने आप में विडंबना ही है क्योंकि MSP अपने आप में सरकार के सारे सुधारों की असफलता की बानगी है.
इसे समझने के लिए पहले MSP को थोड़ा समझना होगा। यह किसी भी फसल के लिए ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ होता है, यानी किसी को गिरने से रोकने के लिए अंतिम उपाय के तौर पर बैसाखी की सहायता. तो कायदे से देश के किसानों और सरकारों का पहला लक्ष्य MSP को अप्रासंगिक बनाना होना चाहिए. और ऐसा सिर्फ तभी हो सकता है यदि बाजार में किसी भी कमोडिटी का मूल्य सरकार द्वारा घोषित MSP से ज़्यादा हो जाए. लेकिन हो यह रहा है कि किसान MSP की गारंटी मांग रहा है और सरकार गर्व से यह बता रही है कि उसने 2013-14 के मुकबाले 2020-21 के दौरान MSP पर 40 गुने से ज़्यादा दालें और 288 गुने से ज़्यादा कपास खरीदा है.
किसानों और सरकारों का यही भटकाव दरअसल पंजाब के किसानों में कृषि कानूनों के खिलाफ भड़के आक्रोश का सबसे बड़ा कारण है. पंजाब में गेहूं और चावल की 95%-98% उपज MSP पर ही खरीदी जाती है. इसका नतीजा यह होता है कि यहां का किसान न तो फसलों की गुणवत्ता बढ़ाने पर कभी ध्यान देने की ज़रूरत समझता है और न ही, अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए बहुफसलीकरण (क्रॉप डायवर्सिफिकेशन) की ओर बढ़ना चाहता है. पंजाब के किसान और उसकी आमदनी पर इसका क्या असर हुआ है, इसे समझने के लिए राज्य के कृषि GDP का आंकड़ा देखना चाहिए.
पंजाब में 1971-80 के दौरान कृषि GDP की ग्रोथ लगभग 3.5% थी जो देश में कर्नाटक के बाद दूसरे नंबर पर थी. इसके अगले दशक में 1981-90 के पंजाब ने 5% की एग्री ग्रोथ रेट के साथ पूरे देश में पहला स्थान हासिल किया. लेकिन इसके बाद पंजाब में खेती की ग्रोथ रेट लगातार गिरती गई. बाद के तीन दशकों 1991-2000, 2001-2010 और 2011-2020 के दौरान यह वृद्धि दर क्रमशः लगभग 3.25%, 1.75% और 0.75% रह गई. पंजाब की खेती में आई यह गिरावट किसी राष्ट्रीय रुझान का हिस्सा नहीं है.आज की तारीख में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और बिहार जैसे कई राज्य पंजाब के मुकाबले कृषि ग्रोथ रेट में कहीं आगे हो चुके हैं.*
हरित क्रांति में पंजाब और हरियाणा की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता. बॉलीवुड की फिल्मों ने भी पंजाब की छवि खेती के स्वर्ग के तौर पर उकेरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है, जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर सिंचाई से लेकर तकनीक और बीज से लेकर खादों तक पंजाब में सब्सिडी की वह झड़ी लगाई कि वहां के किसानों के लिए चावल और गेहूं की खेती से फायदेमंद कुछ रहा ही नहीं. नतीजा यह हुआ कि चावल उत्पादन का रकबा जो 1960-61 में 6.05% था, वह 1990-91 में बढ़कर 47.77% और 2004-05 में 63.02% हो गया. वर्ष 1960-61 के दौरान पंजाब की कुल खेती लायक जमीन में गेहूं का रकबा 27% था, जो 2018-19 में 45% हो गया.
इस पूरी कहानी में MSP की भूमिका को भी समझिए। पंजाब में हर किसान के लिए चावल और गेहूं के अलावा किसी भी फसल की खेती में कोई इंसेंटिव नहीं रहा और इन दोनों फसलों में बैठे-बिठाए देश के हर किसान से बेहतर भाव मिलने की गारंटी मिल गई स्वाभाविक तौर पर गेहूं, धान के बढ़े रकबे ने अन्य फसलों की हिस्सेदारी काटना शुरू किया. 1960-61 में जहां पंजाब की कृषि व्यवस्था में 21 फसलों की खेती हो रही थी, वहीं 1991 में यह संख्या घटकर 9 रह गई.2018-19 तक पंजाब की कुल जमीन में 93% पर अनाज की ही खेती हो रही थी.
यह कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई. पंजाब में कृषि की गिरावट के साथ ही यहां कि किसानों की आमदनी में भी कमी आनी शुरू हुई. चावल और गेहूं से चिपके रहने के कारण यहां के किसान ने बहुफसलीकरण से तो मुंह मोड़ा ही, फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन) से भी किनारा कर लिया. नतीजा हुआ, ज़मीन की घटती उत्पादकता। घटती उत्पादकता में मिट्टी को चूसने के लिए और ज़्यादा खाद, और ज़्यादा पानी, और ज़्यादा दवाइयां इस्तेमाल होने लगीं। परिणाम हुआ, किसानों के लिए खेती की बढ़ती लागत, ज़्यादा से ज़्यादा कर्ज़ और कर्ज़ का कुचक्र.
अब पंजाब का किसान इस कुचक्र में ऐसा फंस चुका है कि उसकी इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास दोनों ही समाप्त हो चुके हैं. उसे लगता है कि यदि MSP गया, तो उसका जीवन ही चला जाएगा. दिक्क़त यह है कि किसान पंजाब का मुख्य वोट बैंक है, तो उसके आत्मविश्वास को जगाने की अपेक्षा राजनीति से करना भी व्यर्थ है. यही कृषि कानूनों के विरोध का पूरा गणित है, जिसमें MSP धुरी की भूमिका निभा रहा है.
*(सभी आंकड़ों के स्रोत राज्यों के इकोनॉमिक्स और सांख्यिकी निदेशालय हैं)
Disclaimer: कॉलम में व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं. लेख में दिए फैक्ट्स और विचार किसी भी तरह Money9.com के विचारों को नहीं दर्शाते.