निजीकरण पर जोर तो होना ही चाहिए, अर्थव्यवस्था में सफेद हाथियों का क्या काम?

Privatisation: बड़ी पूंजी लगाने के बावजूद सरकारी कंपनियों की ऐसी हालत है कि उनकी पूंजी पर रिटर्न 2009 के मुकाबले 2018 में करीब आधी ही रह गई.

  • Team Money9
  • Updated Date - February 13, 2021, 01:02 IST
process of disinvestment of air india to be completed in next 10 days

Pic Courtesy: Pixabay, एयर इंडिया को 18000 करोड़ रुपये की बोली लगाकर टाटा संस ने अपने नाम कर लिया है.

Pic Courtesy: Pixabay, एयर इंडिया को 18000 करोड़ रुपये की बोली लगाकर टाटा संस ने अपने नाम कर लिया है.

शुक्र है कि राजनीतिक रूप से ‘डर्टी’ समझे जाने वाले प्राइवेटाइजेशन (Privatisation) वर्ड को सत्ताधारी पार्टी ने खुलकर सपोर्ट किया है. हमें ध्यान रहे कि परसेप्शन के हिसाब से जो ‘डर्टी’ लगता है उसकी हमें फिलहाल सख्त जरूरत है. लेकिन हमें यह समझना होगा कि सरकारी कंपनियों को उचित कीमत में बेचना प्राइवेटाइजेशन (Privatisation) की प्रक्रिया का बस एक हिस्सा है. उससे जरूरी हिस्सा है, ऐसा माहौल तैयार करना जहां प्राइवेट बिजनेस को प्रोत्साहन मिले और वेल्थ क्रिएशन (Wealth Creation) को सम्मान.

प्राइवेटाइजेशन जरूरी है!

प्राइवेटाइजेशन (Privatisation)  जरूरी है, इसके लिए कौन से आंकड़े पेश करूं? सरकारी कंपनी एयर इंडिया का ही हाल देख लीजिए. बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2014-15 से 2018-19 के बीच सरकार की तरफ से एयर इंडिया में 24,000 करोड़ रुपए से ज्यादा रकम डाली गई. लेकिन सरकारी एयरलाइंस की फिर भी ऐसी हालत है कि इतनी बड़ी रकम निगलने के बावजूद हर साल नुकसान ही कर रहा है और वो भी बेहिसाब.

उन्हीं पांच सालों में सरकारी बैंकों को 2.5 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त पूंजी दी गई. इसके बावजूद स्थिति ये है कि बैंकों को बचाने के लिए और कितने रुपए देने होंगे पता नहीं. इतना सब करने के बावजूद सरकारी कंपनियों की ऐसी हालत है कि उनकी पूंजी पर रिटर्न 2009 के मुकाबले 2018 में करीब आधी ही रह गई.

मतलब यह कि सरकारी कंपनियों में ग्रोथ तो दूर, उन पर टैक्सपेयर्स के हजारों करोड़ खर्च हो रहे हैं और रिटर्न फिर भी मामूली. तंगी वाली अर्थव्यवस्था में ऐसे सफेद हाथियों का क्या काम? अपने आस-पास ही देखिए, 20 साल पहले काफी हैसियत रखने वाली बीएसएनएल (BSNL) और एमटीएनएल (MTNL) जैसी सरकारी कंपनियां अभी वजूद कायम रखने भर में जुटी है.

इन कंपनियों को बेचा गया तो हो सकता है कि इनमें फिर से जान आए और शायद वैल्यू क्रिएशन भी हो. मारूति की कहानी को याद कीजिए. सरकार ने इसमें हिस्सेदारी घटाई और मैनेजमेंट कंट्रोल छोड़ा. उसके बाद से कंपनी में सरकारी हिस्सेदारी की वैल्यू कई गुना बढ़ चुकी है.

सरकारी कंपनियों का कैरेक्टर बदले, यह तो बस एक पहलू है. समाज में वेल्थ क्रिएशन को सम्मान मिले, यह उससे भी ज्यादा जरूरी है. अपने देश में एक अजीबोगरीब समाजवादी मानसिकता रही है जिसमें वेल्थ क्रिएटर्स को शक के साथ देखा जाता है. सरकारें भी इसी मानसिकता का फायदा उठाती रही हैं. इसको भी बदलना होगा.

‘आत्मनिर्भरता का विकेंद्रीकरण’

प्राइवेट इंटरप्राइज को बढ़ावा देना मतलब आत्मनिर्भरता का विकेंद्रीकरण (Decentralisation) है. मैं अपनी किस्मत खुद बदल सकता हूं, ये बहुत ही पावरफुल फीलिंग है. आत्मनिर्भरता का मूल भी वही है और अर्थव्यवस्था में एनिमल स्पिरिट (Animal Spirit) को भी इसी फीलिंग से बल मिलता है.

क्या इतना बड़ा बदलाव कुछेक चुनिंदा भाषणों से हो जाएगा? मेरे हिसाब से इससे प्राइवेटाइजेशन (Privatisation) की शुरुआत भर ही होगी. लेकिन बड़े बदलाव और बड़े परिणाम के लिए ‘सरकारी’ से जुड़े प्रीमियम में एडजस्टमेंट करना होगा. प्राइवेट इंटरप्राइज को पंख लगे इसके लिए जरूरी है कि सारे तरह के इंटरप्राइज- सरकारी और प्राइवेट- में लेवल प्लेइंग फील्ड हो. अभी ऐसा है क्या? लेकिन वो तो होना ही चाहिए ना?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

Disclaimer: कॉलम में व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं. लेख में दिए फैक्ट्स और विचार किसी भी तरह Money9.com के विचारों को नहीं दर्शाते.

Published - February 13, 2021, 01:02 IST