Petrol-Diesel Prices- देश का कंज़्यूमर एक अजीब से विरोधाभास से गुज़र रहा है. एक ओर मीडिया की सुर्ख़ियां बता रही हैं कि ख़ुदरा महंगाई दर जनवरी में 16 महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है, वहीं दूसरी ओर पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें (Petrol-Diese Prices) 90 रुपये का आंकड़ा पार कर चुकी हैं. ऐसे में सवाल यह है कि यदि पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें (Petrol-Diese Prices) लगातार बढ़ती जा रही हैं, तो उनका असर महंगाई के आंकड़ों में क्यों नहीं दिख रहा? क्या सचमुच महंगाई और फ़्यूल की कीमतों में आपसी संबंध ख़त्म हो गया है, जिसे तकनीकी भाषा में डिकपलिंग कहते हैं?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए महंगाई दर के आंकड़ों को सुर्ख़ियों के थोड़ा भीतर झांक कर देखना होगा. जनवरी में ख़ुदरा महंगाई दर में 4.06% की बढ़ोतरी रही, जो कि दिसंबर में 4.59% थी. ख़ास बात यह है कि यह दर पूरे 2020 में नवंबर तक 6-8% के दायरे में रही थी. इसी दौरान यदि पेट्रोल की कीमतों पर नज़र डालें, तो यह दिल्ली में साल भर पहले करीब 74 रुपये थी और डीज़ल 68 रुपये पर था. तो साल भर में यदि पेट्रोल की कीमत 91 रुपये, और डीज़ल की कीमत 81 रुपये पहुंच गई, तो खुदरा महंगाई दर में 16 महीनों का निम्नतम स्तर कैसे दिख रहा है?
इस गोरखधंधे को समझने के लिए पहले हेडलाइन इन्फ्लेशन और कोर इन्फ्लेशन का अंतर समझना सही रहेगा. हेडलाइन इन्फ्लेशन यानी महंगाई दर का ओवरऑल आंकड़ा और जब उसमें से सब्जियों और ईंधन की महंगाई हटा देते हैं, तो जो दर हासिल होती है, उसे कहते हैं कोर इन्फ्लेशन. साल 1970 के दशक तक कोर इन्फ्लेशन नाम की कोई चीज नहीं होती थी. उसी समय यह महसूस किया गया कि दरअसल फूड और फ़्यूल की महंगाई दरें बहुत छोटी अवधि में गिरती-चढ़ती रहती हैं और इसलिए हेडलाइन इन्फ्लेशन के आंकड़ों में भ्रम पैदा करती हैं. और तभी कोर इन्फ्लेशन की अवधारणा सामने आई.
अब इसी अवधारणा से मौजूदा विरोधाभास को समझने की कोशिश की जा सकती है. सुर्ख़ियां भले ही महंगाई दरों के 16 महीने के निचले स्तर पर आने की घोषणा कर रही हों, लेकिन सच्चाई यह है कि फ़्यूल की बढ़ती कीमतें कोर इन्फ्लेशन पर अपना असर डालना शुरू कर चुकी हैं. जनवरी में जब हेडलाइन इन्फ्लेशन दिसंबर के मुकाबले 4.59% से गिर कर 4.06% पर आ गई, उस समय भी कोर इन्फ्लेशन 5.33% पर बनी हुई थी.
यदि अलग-अलग सेक्टरों की महंगाई का हिसाब देखें, तो चीजें और साफ होती हैं. कपड़े और फुटवियर की महंगाई एक महीने में 3.49% से बढ़कर 3.82% हो गई, हाउसिंग में यह 3.21% से बढ़कर 3.25% हो गई, हेल्थ इन्फ्लेशन 5.98% से बढ़कर 6.02% हो गई. परिहवन और संचार क्षेत्र में महंगाई की दर पहले से ही काफी ज़्यादा है और यह 9.32% के स्तर पर ही कायम रही.
फिर भी, सरकार को इस बात के लिए ज़रूर क्रेडिट दिया जा सकता है कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी के बावजूद आम आदमी के रोज़ाना के खर्च में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. जहां घरेलू सामानों और सेवाओं की महंगाई महीने भर में 2.95% से घटकर 2.80% हो गई, वहीं सबसे ज़्यादा कमी सब्जियों की कीमत में आई. दिसंबर में जहां सब्जियों की कीमत में 10.41% की कमी आई थी, वहीं जनवरी में यह कमी बढ़कर 15.84% हो गई. यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि जब हम कहते हैं महंगाई दर कम हुई मतलब चीजें महंगी तो हुईं, लेकिन पिछले महीने के मुकाबले महंगाई में बढ़ोतरी की दर कम रही. लेकिन जब हम यहां सब्ज़ियों की बात कर रहे हैं, तब यह सस्ती होने की बात है. यानि यदि दिसंबर 2019 में सब्ज़ियां 100 रुपये की थीं, तो यह दिसंबर 2020 में 89.59 रुपये की हो गईं जबकि जनवरी 2020 के मुकाबले इनमें 15% से भी ज़्यादा कमी दर्ज़ की गई.
सब्ज़ियों की महंगाई में आई यह ज़बर्दस्त कमी ही हेडलाइन इन्फ्लेशन को 16 महीने के निचले स्तर पर ले जाने और पेट्रोल-डीज़ल के दामों में आए भारी उछाल का असर छिपाने के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है. ऐसा होने के पीछे मुख्य रूप से दो कारण हैं- पहला, सब्ज़ियों के ट्रांसपोर्टेशन में आम तौर पर फ़्यूल के दामों में बढ़त या कमी का बहुत ज़्यादा असर नहीं होता है क्योंकि सब्ज़ियां ज़्यादातर मामलों में बिक्री के लिए उत्पादन केंद्रों से 200-300 किलोमीटर से अधिक दूरी तक नहीं जातीं. दूसरा, सब्ज़ियों के मामले में मांग-पूर्ति का समीकरण इतना मज़बूत होता है कि इनकी कीमतों पर फ़्यूल के दाम का जो असर पड़ सकता है, वह बहुत थोड़ा होता है और अंतिम भाव में उसकी भूमिका गौण हो जाती है.
यह मुख्य कारण है कि सब्ज़ियां जनवरी में बहुत सस्ती हुईं, इसके बावजूद कि पेट्रोल-डीज़ल के दामों में बदस्तूर इज़ाफ़ा होता रहा. और इसीलिए फिलहाल हेडलाइन इनफ्लेशन भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति के लक्ष्य 4(+/-2)% से काफी नीचे दिख रहा है और केंद्र सरकार नीरो की भांति बांसुरी बजाती दिख रही है. लेकिन सब्ज़ियों के दाम जाड़े के कम होते ही बढ़ने शुरू होंगे, यह तय है. इसलिए यदि पेट्रोल-डीज़ल के दामों को बढ़ने से तुरंत रोका नहीं गया, तो यह जंगल की आग की तरह बढ़ते-बढ़ते शहरों को भी अपने चपेटे में लेगी, इसमें कोई शक़ नहीं.
(लेखक कृषि और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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