भारत में मानसिक स्वास्थ्य की अक्सर अनदेखी की जाती है. ऐसे में सोमवार को दिल्ली हाईकोर्ट के नेशनल इंश्योरेंस कंपनी (NIC) को सीजोफ्रेनिया के इलाज के खर्च का भुगतान करने का निर्देश देना एक अच्छा कदम है. NIC ने एक महिला को इलाज का खर्च देने से इनकार कर दिया था और उसने इसकी शिकायत की थी.
कोर्ट ने कंपनी को ये भी निर्देश दिया है कि वह मुकदमा करने वाली महिला को कानूनी खर्च का भी भुगतान करे.
इसके अलावा, अदालत ने इसे केवल इस एक मामले तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इंश्योरेंस रेगुलेटरी डिवेलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (IRDAI) से भी कहा है कि वह इस बात की निगरानी करे कि क्या बीमा कंपनियां मानसिक स्वास्थ्य मरीजों के इलाज के खर्च से इनकार तो नहीं कर रही हैं.
कोर्ट ने कहा है कि अगर बीमा कंपनियां भुगतान से बच रही हैं तो इंश्योरेंस रेगुलेट अपनी आंखें बंद करके बैठा नहीं रह सकता है.
WHO का अनुमान है कि करीब 7.5 फीसदी इंडियंस मेंटल डिसऑर्डर्स का सामना करते हैं और इस बड़ी संख्या को हैंडल करने के लिए देश में पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है. मरीजों के लिए तब मुश्किलें और बढ़ जाती हैं जब बीमा कंपनियां भी इलाज का खर्च देने से अपने हाथ पीछे खींच लेती हैं.
2017 के मेंटल हेल्थकेयर एक्ट में यह कहा गया है कि मानसिक बीमारियों के मरीजों को भी इलाज और एक सम्मानपूर्ण जिंदगी जीने का हक है.
ऐसे में जब बीमा कंपनियां मेंटर पेशेंट्स के इलाज के खर्च को उठाने से इनकार कर देती हैं तो इस कानून का उल्लंघन होता है. अदालतों ने इस अधिकार को माना है और अपनी ओर से इसका पालन सुनिश्चित कराने की कोशिश की है.
अब यह इंश्योरेंस रेगुलेटर की जिम्मेदारी है कि वह अदालती दखल को जमीनी धरातल पर उतारे.
किसी भी सभ्य देश के बेहतर होने का पैमाना इस बात में निहित होता है कि वह अपने यहां जोखिम भरी आबादी के साथ किस तरह का व्यवहार करता है.
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह की बिना किसी हिचक के इस ओर इशारा करने के लिए तारीफ की जानी चाहिए. निश्चित तौर पर बीमा कंपनी को हाईकोर्ट के अदालत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने का अधिकार है. लेकिन, इस बात पर बहस की जा सकती है कि क्या ऐसा करना सही होगा?