संसद के दोनों सदनों में किसी विधेयक का पारित होना, उसकी नियमित प्रक्रिया का हिस्सा है. गुरुवार 19 मार्च को भी ऐसा ही हुआ जब बीमा कानून (Insurance rules) में बदलाव से जुड़े विधेयक (Bill) पर राज्य सभा ने अपनी मुहर लगा दी. अब यहां के बाद लोकसभा में विधेयक को मंजूरी मिलने में कोई खास परेशानी नहीं दिखती और संभव है कि अगले हफ्ते तक यह काम पूरा हो जाएगा. क्या यह विधेयक एक सामान्य विधेयक है? जवाब शायद ना में होगा.
क्योंकि इस विधेयक के जरिए विदेशी निवेशकों को बीमा (FDI in Insurance) के कारोबार में 74 फीसदी हिस्सेदारी तक ना केवल निवेश करने, बल्कि मालिकाना हक दिए जाने का प्रस्ताव है. वैसे तो 2019 में सत्ता में लौटने के साथ ही मोदी सरकार ने बीमा कारोबार में विदेशी निवेश (Foreign Investment) बढ़ाए जाने का ऐलान कर दिया था, लेकिन उसके लिए औपचारिक प्रस्ताव का ऐलान वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में किया गया और फिर कुछ ही दिनों के भीतर विधेयक पेश भी कर दिया गया.
अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Finance minister Nirmala Sitharaman) ने कहा कि एहतियाती उपायों के साथ विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव है. “नयी व्यवस्था में कंपनी के निदेशक बोर्ड में ज्यादात्तर सदस्य और प्रबंधन से जुड़े प्रमुख पदों पर भारतीय होंगे. कम से कम 50 फीसदी बोर्ड के सदस्य स्वतंत्र निदेशक होंगे. साथ ही मुनाफे का एक निश्चित हिस्सा जनरल रिजर्व में रखना होगा.”
दिलचस्प बात ये है कि बीमा बाजार विदेशी निवेशकों (Foreign Direct investment) के लिए खोले जाने का फैसला जब लिया गया तब केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार थी. वर्ष 2000 में 26 फीसदी निवेश की इजाजत दी गई. हालांकि, उस समय संसद के भीतर और बाहर खासा विरोध देखने को मिला, फिर भी कानून में बदलाव की विधायी प्रक्रिया पूरी हो गई. इसके 15 वर्षों के बाद दूसरी बार विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी बढ़ाए जाने का फैसला हुआ, तब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार की सत्ता में वापसी हुई. तब भी अच्छा खासा विरोध हुआ, लेकिन संसद ने आखिरकार अपनी मंजूरी दे दी.
अबकी बार 15 मार्च को बिल पेश होने के बाद थोड़ी बहुत सुगबुगाहट हुई है. राज्यसभा में बिल पर बहस के दौरान कुछ गहमागहमी जरूर देखने को मिले. थोड़े समय के लिए कार्यवाही रोकनी पड़ी, लेकिन उसके बाद विधेयक पारित हो गया. अब सवाल उठता है कि यह पहल कोई महत्वपूर्ण है? इस पर चर्चा करने के पहले आपको कुछ आंकड़ों पर नजर डालनी होगी.
बीमा बाजार की नियामक, Insurance Regulatory and Development Authority (IRDAI) की ताजा रिपोर्ट बताती है सरकारी कंपनी LIC के अलावा 23 कंपनियां जीवन बीमा के कारोबार में लगी हैं. इन कंपनियों ने 33.32 करोड़ जीवन बीमा पॉलिसी चालू है जिसमें से अकेले LIC के नाम 21 करोड़ से ज्यादा पॉलिसी है. दूसरी ओर गैर-जीवन बीमा के कारोबार में 34 कंपनियां (स्वास्थ्य बीमा और कृषि बीमा के लिए विशेष तौर पर बनी को लेकर) लगी हैं. स्वास्थ्य व कृषि जैसे विशिष्ट तरह की बीमा पॉलिसी को छोड़ दें तो करीब 20 करोड़ सामान्य बीमा पॉलिसी चालू हैं, जबकि स्वास्थ्य के माले में यह संख्या 1 करोड़ से कुछ ज्यादा है.
क्या यह काफी है? बिल्कुल नहीं. खास तौर पर महामारी के दौर में जिस तरह की बीमा की जरुरतें बढ़ी हैं, उसे देखते हुए यह संख्या तो बिल्कुल ही पर्याप्त नहीं कही जा सकती है. भारतीय स्टेट बैंक की एक रपट बताती है कि बीमा बाजार में पैठ बढ़ाने के लिए पैसे की जरुरत है. यही नहीं नियम के मुताबिक कम से कम पूंजी के मानकों के हिसाब से भी अतिरिक्त पूंजी की जरुरत है. अब बाजार में पैठ की बात करें, जिसे सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी और बीमा प्रीमियम के अनुपात के रुप में दिखाया जाता है तो भारत में जीवन बीमा के मामले में ये अनुपात 2.82 फीसदी और गैर-जीवन बीमा के में 0.94 फीसदी है ,यानी कुल मिलाकर 3.76 फीसदी. अब दुनिया के औसत की बात केर तो जीवन बीमा के मामले में यह अनुपात 3.35 फीसदी और गैर-जीवन बीमा के मामले में यह 3.38 फीसदी बनता है, यानी कुल मिलाकर 7.3 फीसदी.
जाहिर है संभावनाएं काफी है और विदेशी निवेशक इसे भुनाने की कोशिश करेंगे. बहरहाल, भारतीय स्टेट बैंक की रपट के मुताबिक, मार्च 2019 के अंत में 23 निजी बीमा कंपनियों में औसत विदेशी हिस्सेदारी महज 35.5 फीसदी थी जबकि गैर-जीवन निजी बीमा कंपनियों में ये 30 फीसदी और स्वास्थ्य बीमा के लिए बनी विशेष निजी कंपनियों में 31.7 फीसदी बनती है. अब इन सब का औसत देंखे तो बनता है 33.8 फीसदी.
अब ऐसे में ये सवाल बनता है कि जब विदेशी निवेशक भारतीय बाजार में दिलचस्पी रखते हैं तो बस 33.8 फीसदी ही औसत हिस्सेदारी क्यों ले रखी है? फिलहाल, इस सवाल का जवाब तो अभी किसी के पास नहीं है और यह भी तय नहीं है कि आगे वो खुलकर पैसा लगाएंगे या नहीं. इसीलिए मोटा-मोटी अनुमान है कि अगले 1-2 साल में 5000-6000 करड़ रुपये और पांच सालों में 15-16 हजार करोड़ रुपये तक निवेश आ सकता हैं.
सवाल यहां ये भी उठता है कि लोग आखिरकार स्वैच्छिक तौर पर क्यों नहीं बीमा करवाना चाहते? इसका एक जवाब जागरुकता की कमी है तो वहीं दूसरी ओर जिन्होंने पॉलिसी ले रखी है उनमें से कुछ के मुआवजा पाने के समय में होने वाले भारी परेशानी के अनुभव भी कई लोगों को बाजार से दूर करते हैं. मतलब साफ है कि बीमा कंपनियों को एक साथ दो मोर्चे पर काम करना होगा. पहले तो निवेशकों को भरोसा दिलाना होगा कि भारतीय बाजार से अच्छी कमाई होगी, वहीं ज्यादा से ज्यादा लोगों को बीमा पॉलिसी को लेकर अनुभव बेहतर करने पर काम करना होगा.
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