किसी भी राष्ट्र के जीवनकाल में 30 साल कोई खास अहमियत नहीं रखते हैं. लेकिन, भारत के मामले में ऐसा नहीं है. गुजरे 30 साल बेहद अहम साबित हुए हैं. आजादी के बाद के पहले 30 वर्षों में देश ने कुपोषण, भूख, गरीबी, अनाज से लेकर कपड़ों, दूध के अभाव से जूझने में दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया. इस दौरान इंफ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा हुआ और देश में दुनिया के सामने सिर उठाकर चलने का भरोसा भी पैदा हुआ. जिस तरह से एक पौधे को बाढ़बंदी के जरिए बचाने की कोशिश की जाती है, वैसे ही आजादी के बाद के शुरुआती दशक केंद्रीकृत योजनाओं और नियंत्रण के हिसाब से चलाए गए.
नियति के साथ प्रतिज्ञा
1991 में भारत ने दूसरी दफा अपने भविष्य को बदलने का संकल्प उठाया. अब 30 साल पीछे जाकर देखें तो साफ होता है कि आर्थिक सुधारों को लागू करना भारत की नियति थी. इतनी बड़ी आबादी की जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को केंद्रीकृत रूप से तय की जाने वाली व्यवस्था से पूरा नहीं किया जा सकता था.
एक बार फिर दोराहे पर खड़ा है देश
लेकिन, अब जबकि हम आजादी के बाद की सबसे बड़ी उथल-पुथल का सामना कर रहे हैं, ऐसा लग रहा है कि देश एक बार फिर से 1991 की तरह से एक दोराहे पर आ खड़ा हुआ है. तब देश अपने पेमेंट्स पर डिफॉल्ट करने की हालत में पहुंच गया था.
कोविड महामारी से आबादी के एक बड़े तबके के सामने मौजूद जोखिम का पता चला है. इससे ये सवाल भी पैदा हुआ है कि आखिर गुजरे दौर में हुए सुधार कितने कारगर हुए हैं और इनसे हाशिये पर मौजूद तबके को क्या फायदा हुआ है.
मनमोहन सिंह की 1991 की वो स्पीच
1991 की बजट स्पीच में मनमोहन सिंह ने कहा था, “हमारे दौर की सबसे बड़ी चुनौती ये सुनिश्चित करना है कि पूंजी खड़ी करना न केवल बराबरी और न्याय के आधार पर होना चाहिए, बल्कि इसका लक्ष्य गरीबी को दूर करना और सबके लिए विकास लाना भी होना चाहिए.”
कृषि के सहारे नहीं रहा देश
सुधारों का पहला चरण स्ट्रक्चरल बदलावों से जुड़ा हुआ था और ये इस मकसद को हासिल करने में सफल भी रहा. GDP की कृषि पर निर्भरता कम की गई. सर्विसेज सेक्टर में उछाल आया और मैन्युफैक्चरिंग में तकनीकी बढ़ोतरी हुई.
भारतीय कंपनियों ने आगे आकर न सिर्फ वैश्विक बाजारों से पूंजी जुटाई, बल्कि उन्होंने मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज सेक्टर की कई विदेशी कंपनियों की खरीदारी भी की.
सपेरों के देश से सॉफ्टवेयर हब तक
कभी सपेरों का देश माना जाने वाला भारत अब सॉफ्टवेयर पावरहाउस बन चुका था. ग्लोबल इनवेस्टर्स भारतीय स्टॉक मार्केट्स को लेकर बुलिश हो गए और विदेशी पूंजी बाजार में आने लगी.
भारतीय कंपनियां प्रतिस्पर्धी बनीं और दशकों तक उपेक्षित रहे कस्टमर्स अब अहमियत पाने लगे थे.
स्पेस टेक्नोलॉजी के कुछ चुनिंदा देशों में भारत आज शुमार है. कोविड-19 की वैक्सीन बनाने वाले चुनिंदा देशों में भी हम हैं. 1991 में देश की GDP 274 अरब डॉलर पर थी. 2021 में ये 135.13 लाख करोड़ डॉलर पर पहुंच गई है. इसी अवधि में प्रति व्यक्ति आमदनी में भी बड़ा इजाफा हुआ है.
लेकिन, हाशिये पर मौजूद लोग अछूते रहे
इस शानदार उपलब्धि के बावजूद सुधार एक अहम पहलू को छूने में नाकाम रहे हैं. इसका फायदा हाशिये पर मौजूद तबके को नहीं मिल सका है.
2011 में हुई आखिरी जनगणना में देश में गरीबों की गणना नहीं की गई. लेकिन, वैश्विक संस्थाओं के मुताबिक, महामारी के दौरान 2020 में देश में सबसे बड़ी तादाद में गरीब बढ़े हैं.
बड़ी योजनाएं, लेकिन कमजोर रेवेन्यू
गुजरे कुछ वर्षों में देश ने साल में 100 दिन रोजगार देने के एक प्रभावी कार्यक्रम को चलाया है. इसके साथ ही दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम, वित्तीय समावेश के प्रोग्राम, बेसिक इंश्योरेंस और गरीबों को नकदी मदद जैसी योजनाएं भी चलाई गई हैं.
हालांकि, सरकार इन प्रोग्राम्स को टिकाऊ रूप से चलाने लायक पर्याप्त रेवेन्यू नहीं हासिल कर पा रही है.
अगले चरण के सुधारों का फोकस रेवेन्यू बढ़ाने पर होना चाहिए ताकि इन कल्याणकारी उपायों की फंडिंग की जा सके और देश एक वास्तविक कल्याणकारी राज्य के रूप में उभर सके.
हकीकत में कल्याणकारी राज्य बनना होगा
घरेलू और विदेशी निवेशकों के निवेश में बढ़ोतरी से रेवेन्यू में इजाफा हो सकता है. साथ ही लोगों की आमदनी बढ़ने से भी इसमें इजाफा होगा. इनवेस्टमेंट को बड़े पैमाने पर लाना होगा ताकि इससे देश में मौजूद बेरोजगारी को दूर किया जा सके.
रिफॉर्म्स के पहले दौर में देश खेतों से फैक्टरियों की ओर शिफ्ट हुआ. अगले चरण में ये सुनिश्चित करना होगा कि ये शिफ्ट असंगठित से संगठित सेक्टर की ओर हो.
अगर ऐसा होता है कि भारत निश्चित तौर पर अपनी नियति को बदलने के तीसरे दौर को सफलतापूर्वक हासिल कर लेगा.
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