हाल में ममाअर्थ के आईपीओ की काफी चर्चा रही. इसकी पेरेंट कंपनी Honasa Consumer के IPO में सात म्यूचुअल फंड्स ने एंकर इन्वेस्टर के रूप में करीब 254 करोड़ रुपए का निवेश किया. लेकिन इसकी लिस्टिंग फीकी रही और लिस्टिंग के बाद इस शेयर की हालत खराब दिखी. ऐसे में तमाम लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर म्यूचुअल फंड्स ने क्या देखकर इस कंपनी में निवेश किया?
इसके पहले भी पेटीएम, पीबी फिनटेक, कारट्रेड जैसी न्यू एज स्टार्टअप कंपनियों में भी म्यूचुअल फंड्स ने जमकर निवेश किया था और उनका क्या हश्र हुआ, यह सबने देखा है.म्यूचुअल फंड्स की इस बात के लिए आलोचना की जा रही है वे खराब ट्रैक रिकॉर्ड और कमजोर फाइनेंशियल वाले न्यू एज स्टार्टअप के आईपीओ में भी निवेश कर रहे हैं.
नई कंपनी में निवेश वैसे ही जोखिम भरा होता है, क्योंकि उनका ट्रैक रिकॉर्ड नहीं होता है और इनमें ज्यादा उतार-चढ़ाव की गुंजाइश रहती है. खासकर न्यू एज स्टार्टअप में भारी उतार-चढ़ाव की आशंका रहती है. इनमें निवेश को लेकर एक्सपर्ट आम निवेशकों को भी सचेत रहने की सलाह देते हैं, तो फिर भला म्यूचुअल फंड क्यों सचेत नहीं हैं.
ऐसी कई कंपनियां अभी तक फायदे में नहीं है, बस उनके पास एक अनुमान है कि वे कब से फायदे में आ जाएंगी. अगर उनका कारोबार अनुमान के मुताबिक नहीं चला तो मुनाफा कमाने की यह योजना धरी रह सकती है और इसमें काफी समय लग सकता है.
फंड हाउस किसी आईपीओ में एंकर इन्वेस्टर या संस्थागत निवेशक के रूप में निवेश कर सकते हैं. लेकिन एंकर इनवेस्टर के लिए लॉक-इन पीरियड होता है. वे लिस्टिंग के 30 दिन के बाद ही 50 फीसद शेयर बेच सकते हैं और 90 दिन के बाद बाकी 50 फीसद शेयर बेच सकते हैं. कई बार ऐसा देखा गया है कि म्यूचुअल फंड लॉक-इन पीरियड के बाद शेयर बेच देते हैं. लेकिन ऐसा भी हुआ है कि किसी कंपनी में अगर फंड हाउस का भरोसा बना हुआ है तो उसके शेयरों के टूटने पर वह एवरेजिंग कर लेते हैं यानी कुछ और शेयर खरीद लेते हैं.
ऐसे में सवाल यह है कि इतना सब कुछ नुकसान के होते हुए भी म्यूचुअल फंड न्यू एज स्टार्टअप कंपनियों के आईपीओ में पैसा क्यों लगा रहे हैं? आखिर आम निवेशकों की गाढ़ी कमाई से बने म्यूचुअल फंड इस तरह का जोखिम क्यों ले रहे हैं.
तो इस मामले में दोनों तरह की स्थितियां हैं. कहीं फंड मैनेजर अपने रिश्ते निभाने के लिए निवेशकों को नुकसान पहुंचा रहा है, तो कहीं ऐसा निवेश वाजिब है यानी अच्छे फायदे की उम्मीद में निवेश हो रहा है.
कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि म्यूचुअल फंड सिर्फ शॉर्ट टर्म गेन नहीं देखते. IPO के जरिए वे ऐसी कंपनियों की तलाश करते हैं जो मल्टीबैगर साबित हो सकते हैं. ऐसी कंपनियों में निवेश से पहले म्यूचुअल फंड ड्यू डिलिजेंस यानी पूरी जांच-पड़ताल करते हैं.
मार्केट एक्सपर्ट डॉ. रवि सिंह कहते हैं कि ऐसा कई बार देखा गया कि किसी म्यूचुअल फंड के मैनेजर ने अपने व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर किसी IPO में निवेश किया हो. फंड मैनेजर की ऐसी किसी भी तरह की तरफदारी का खामियाजा आम निवेशक को भुगतना ही पड़ता है. हां कई बार बेहतर ग्रोथ की उम्मीद में भी फंड आईपीओ में निवेश करते हैं. कई कंपनियों में उन्होंने अच्छी कमाई भी कराई है.
अगर सही चुनाव हो, सही समय पर निवेश हो और सही मात्रा में निवेश किया जाए तो IPO में निवेश से अच्छा पैसा बनाया जा सकता है. कंपनी का बिजनेस मॉडल भरोसेमंद होना चाहिए. कुल मिलाकर कहें तो पिछले वर्षों में कई स्टार्टअप में म्यूचुअल फंड्स ने जिस तरह से निवेश कर नुकसान उठाया है, उससे कहीं न कहीं फंड मैनेजर्स के फैसलों पर सवाल खड़ा होता ही है.
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