स्वास्थ्य बीमा में कई तरह के टर्म जुड़े होते हैं. इनकी जानकारी के अभाव में क्लेम लेने में मुश्किलें आ सकती हैं. इन्हीं में से एक टर्म है को-पेमेंट. यह स्वास्थ्य बीमा का एक शर्त है जिसमें क्लेम की राशि के एक हिस्से का भुगतान पॉलिसीधारक करता है. ये पॉलिसीधारक और बीमा कंपनी के बीच एक अग्रीमेंट पर आधारित होता है. इसे “कोपे” भी कहा जाता है. हालांकि इस क्लॉज से बचना चाहिए. इलाज के दौरान यह विकल्प काफी महंगा साबित होता है. थोड़ा ज्यादा प्रीमियम देकर इस क्लॉज से बचा जा सकता है.
को-पेमेंट कुल मेडिकल खर्च का एक छोटा सा हिस्सा होता है जिसे बीमाधारक भरता है. उदाहरण के तौर पर आपने स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी खरीदी है और दुर्भाग्यवश कोई मेडिकल इमर्जेंसी हो जाती है. अगर इस बीमारी के इलाज में आपके दो लाख रुपए खर्च हो गए तो आप अपनी बीमा कंपनी को क्लेम के लिए सूचित करेंगे. ऐसे में अगर बीमा कंपनी आपको मेडिकल खर्च का कुछ हिस्सा आपको अपनी जेब से देने को कहे तो उस राशि को को-पेमेंट या कोपे कहा जाता है. यानी बीमाधारक को कोई भी मेडिकल इमर्जेंसी होने पर उसके अधिकतर खर्च का भुगतान कंपनी करती है और कुछ हिस्सा बीमाधारक को करना पड़ता है.
कोपेमेंट आमतौर पर कुल क्लेम राशि का 10 से 30 फीसद तक होता है. अगर आपने पूरे परिवार का हेल्थ इंश्योरेंस कवर लिया खासकर इसमें आपके माता-पिता भी शामिल हैं तो कोपेमेंट अधिक हो सकता है. अस्पताल में भर्ती होने के दौरान जब आप कोपेमेंट राशि का भुगतान कर देते हैं तो आपकी बीमा कंपनी बाकी की राशि का भुगतान करके बिल सेटल कर देती है. कोपेमेंट के जरिए बीमा कंपनियों को क्लेम की राशि को सीमित करने में मदद मिलती है.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट? पर्सनल फाइनेंस एक्सपर्ट जितेन्द्र सोलंकी कहते हैं कि पॉलिसीधारक के लिए को-पेमेंट का विकल्प अच्छा नहीं है. इलाज के दौरान वैसे भी कई तरह के खर्च बढ़ जाते हैं. ऐसे में को-पेमेंट के रूप में कई बार बड़ी रकम चुकानी पड़ जाती है. आजकल स्वास्थ्य बीमा थोड़ा ज्यादा प्रीमियम लेकर को-पेमेंट के क्लॉज को हटा देती हैं. बेहतर रहेगा कि आप अपनी पॉलिसी में को-पेमेंट का विकल्प न चुनें. हालांकि इसके लिए आपको थोड़ा ज्यादा प्रीमियम चुकाना पड़ सकता है लेकिन कुल मिलाकर यह फायदे का ही सौदा साबित होगा.
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