साल की शुरुआत से ही कच्चे तेल (crude oil) की कीमतों में तेजी देखने को मिल रही है. तेल की कीमतों में इस साल 65 फीसदी से अधिक उछाल ने सभी की चिंताएं बढ़ा दी हैं. इसके बाद भी लोगों को उम्मीद है कि बिना किसी तनाव के महंगे हुए कच्चे तेल की कीमतों को संभाला जा सकता है. कच्चे तेल की कीमतें कितनी भी ऊपर क्यों न चली जाएं, इससे अर्थव्यवस्था नहीं डगमगाएगी.
इकोनॉमिक टाइम्स में जेपी मॉर्गन के रणनीतिकार मार्को कोलानोविक और ब्रैम कपलान के हवाले से प्रकाशित खबर के अनुसार, 2010 और 2015 के बीच तेल का औसत 100 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से अधिक था और उस दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था और बाजार ठीक थे. लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि ऊर्जा की मौजूदा कीमत का अर्थव्यवस्था पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. फिर भी हमें लगता है कि यदि कच्चे तेल की कीमतें 150 अमेरिकी डॉलर के पार हो भी जाएं तो इसका इक्विटी बाजार और अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और यह अच्छी तरह से काम करती रहेंगी.
अन्य ऊर्जा स्रोतों की कीमतें भी उच्च स्तर पर
बोफा विश्लेषकों का कहना है कि तेल की कीमतें ऐतिहासिक रूप से तब समस्या पैदा करती हैं जब ऊर्जा की लागत वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के 8.8 प्रतिशत से अधिक हो जाती हैं, जो पिछली बार 2008 में देखी गईं थीं. वहीं, एक खतरा यह है कि तेल के साथ-साथ अन्य ऊर्जा स्रोतों की कीमतें भी जैसे रॉकेट-गैस और कोयले के दाम रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गए हैं. पिक्टेट वेल्थ मैनेजमेंट के वरिष्ठ अर्थशास्त्री थॉमस कॉस्टर्ग ने कहा, “छिपाने के लिए कुछ नहीं है, सभी देख सकते हैं कि गैस और कोयला भी रिकॉर्ड ऊंचाई पर हैं.” कुल मिलाकर कहा जा सकता है बढ़ते तेल के दाम फिलीपींस, थाईलैंड, भारत और तुर्की सहित बड़े तेल आयातकों को दोहरी मार के लिए मजबूर कर सकते हैं.
2023 तक सस्ता हो सकता है कच्चा तेल
कोलंबिया विश्वविद्यालय (Columbia University) के सेंटर फॉर ग्लोबल एनर्जी पॉलिसी (Center on Global Energy Policy) के अनुसार, पूरी दुनिया में तेल की खपत 1973 से 2019 के बीच 56 प्रतिशत गिर गई थी. मार्च 2020 से ब्रेंट क्रूड में 430 प्रतिशत के उछाल के बाद उम्मीद है कि 2023 तक तेल सस्ता हो सकता है. 2011 की शुरुआत से वैश्विक इक्विटी में 125 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, प्रमुख शहरों में कीमतों में दो या तीन अंकों की वृद्धि देखी गई है, लेकिन ब्रेंट वायदा 10 प्रतिशत नीचे है.