भारतीय सभ्यता सदियों पुरानी है लेकिन लोकतंत्र के तौर पर हम अभी युवा हैं. आजादी के सालों के आधार पर और डेमोग्राफिक कंपोजिशन दोनों के आधार पर. भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ साथ लोगों की उम्मीदें भी बढ़ रही हैं जिससे नए अवसर भी पैदा हो रहे हैं.
इस दौरान कुछ उभरते मुद्दों पर विचार करना बेहद जरूरी है, जो सीधे तौर पर आम आदमी खासकर ईमानदार भारतीय टैक्सपेयर्स से जुड़े हुए हैं. मोनिका हलन ने देश में टैक्सपेयर्स की हालात को समझते हुए एक अच्छी बात कही है कि कैसे हमारे टैक्सपेयर्स के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, जो कुछ नहीं कर रहे हैं.
ये बात सच है कि भारत में प्रत्यक्ष कर को लेकर अभी और आगे बढ़ना है क्योंकि देश की बड़ी आबादी का बोझ एक छोटे से समूह पर पड़ रहा है. इस बात को हमें ऐसे भी समझना होगा कि कृषि पर कोई टैक्स नहीं लगता है, और वर्तमान में हमारे कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा इस क्षेत्र से आता है. ऐसी उम्मीद है कि आर्थिक विकास के चलते कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्र में श्रमिकों का अनुपात कम होगा जिससे आने वाले सालों में कर देने वालों में इजाफा होगा.
कुछ मायनों में, यह 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ट्रेंड रहा है और शायद आने वाले समय में बीते सालों की तुलना में तेजी से श्रम बल दूसरे क्षेत्रों में शिफ्ट होगा. टैक्स देने वालों की छोटी संख्या पर चर्चा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था के जरूरी क्षेत्रों पर खर्च करने के लिए सरकार के पास मौजूद संसाधनों के संदर्भ में एक चुनौती के रूप में दिखाई देता है.
इसके साथ ही, ये भी चर्चा करनी जरूरी है कि सरकार अपने मौजूदा संसाधनों को कहां खर्च करती है. ऐसे समय में संसाधनों का विवेकपूर्ण आवंटन बेहद जरूरी हो जाता है, जब टैक्सपेयर्स का आधार सीमित है. जो बढ़ती इकोनॉमी के लिए चिंता का विषय है.
इसके अलावा, प्रमुख क्षेत्रों में सार्वजनिक खर्च भी आम जनता के जीवन स्तर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. और आखिरकार, सबसे बुनियादी मांग है कि उनके वर्तमान जीवन को और बेहतर बनाया जाए.
खासकर इस महामारी के दौर में पब्लिक एक्सपेंडिचर यानि सार्वजनिक खर्च की प्राथमिकताओं पर फिर से विचार किया जाए. सबसे बड़ी गलती जो नीति निर्माता करते हैं, वो ये है कि टैक्सपेयर्स के पैसों को बिजनेस में फंड के रूप में इस्तेमाल. आजादी के बाद शुरुआती दशकों में पब्लिक सेक्टर आदर्श बन गए जबकि प्राइवेट सेक्टर पर सख्ती विनियमित किया गया था. उनका प्रवेश उद्योगों में प्रतिबंधित था.
इसके बाद 1991 में, सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को खोलने का काम किया. इसके बाद तेजी से प्राइवेट सेक्टर का विकास हुआ. जबकि पब्लिक सेक्टर की भूमिका अर्थव्यवस्था में सीमित होती चली गई.
अब ये चर्चा बेहद जरूरी है कि पब्लिक सेक्टर यूनिट्स को देश की जनता के दिए टैक्स से सींचा जा रहा है. जो फंड PSU को दिया जा रहा है, उससे दूसरे स्कूल, अस्पताल और सड़कों का निर्माण संभव है. ये तीनों ही देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए जरूरी है. इस तरह के निवेश से भारत की जनता को ज्यादा फायदा मिलेगा क्योंकि वे हमें एक मजबूत पब्लिक हेल्थ सर्विस और एजुकेशन सिस्टम बनाने में मदद मिलेगी जैसा प्रमुख पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में देखने को मिलता है.
लेकिन, अस्पतालों को बनाने की बजाय, हम स्वास्थ्य सेवा में और निवेश करने के लिए उद्योग से मुनाफे की उम्मीद में टैक्सपेयर्स के पैसे से होटल बनाने में लगे थे. न ही इस कदम से कोई फायदा मिला और न ही निवेश हुआ. 1991 के बाद प्राइवेट सेक्टर के बढ़ते रोल के बाद सरकार को पब्लिक सेक्टर के मैनेजमेंट से धीरे-धीरे बाहर निकलने के संकेत के रूप में काम करना चाहिए था.
हालांकि, इसके पीछे अलग अलग कारण हैं क्योंकि लगातार सरकारों ने इसका परहेज किया है. इसका अब तक एकमात्र अपवाद 1999 से 2004 के बीच आई एनडीए सरकार थी.
दुर्भाग्य से, आज भी टैक्सपेयर्स सहित जनता प्राइवेटाइजेशन के महत्व को नहीं समझते हैं क्योंकि उन्हें अभी तक यह महसूस नहीं हुआ है कि ये पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज, उनके कर्मचारी और उनके अधिकार सभी हमारे दिए हुए टैक्स से चल रहे हैं.
यह फंड हमारे लिए बेहद जरूरी क्षेत्रों पर ढंग से खर्च किया जा सकता था जैसे बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के निर्माण, स्कूल के निमार्ण आदि में. जब हमारे पास पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज पहले से घाटे में चल रहे हैं तो स्थिति और खराब हो जाती है.
एयर इंडिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. हर साल टैक्सपेयर्स का 7000 करोड़ एयर इंडिया में चला जाता है. यहां तक कि मुनाफा देने वाली पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज को भी प्राइवेट कर देना चाहिए. चूंकि पब्लिक सेक्टर को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन संरचनाओं का हमारे देश में अभाव है.
वास्तव में, भूतकाल में हमने देखा है कि कई PSU प्राइवेटाइजेशन के बाद ज्यादा कुशल हो गए हैं. क्योंकि उनके मैनेजमेंट को सुधार के लिए तैयार किया गया था. इसके परिणाम स्वरूप PSUs ने ज्यादा नौकरियां, ज्यादा टैक्स और अर्थव्यवस्था में ज्यादा योगदान दिया है.
इसलिए आम जनता को सरकार की सीमा की जानकारी होनी चाहिए. सरकारें बहुत कुछ ठीक कर सकती हैं – जैसे पब्लिक गुड्स के लिए प्रावधान आदि – लेकिन इससे चीजें बेहतर तरीके से नहीं चल सकती हैं.
इसलिए, कम प्रोडक्टिविटी या नुकसान में चल रही कंपनियों में फंसे महत्वपूर्ण संसाधनों को मुक्त कर प्राइवेटाइजेशन करना एक फायदे का सौदा है. जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि, “सरकार का काम व्यवसाय करना नहीं है.”
इसलिए प्राइवेटाइजेशन के परिणामस्वरूप सरकार के पास ज्यादा फंड होगा जिसका इस्तेमाल अधिक पुलिस कर्मियों, अधिक फायर फाइटर्स और अन्य सरकारी सेवाओं के विस्तार के लिए सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है.
सरकार फिर केवल सार्वजनिक वस्तुओं को सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करेगी, तभी हम एक बेहतर निवेश वातावरण बना सकते हैं. इसलिए यह स्वतंत्रता दिवस हम टैक्सपेयर्स के पैसे से चलने वाले पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज को आजाद करने का है. खुशकिस्मती है कि सरकार नई प्राइवेटाइजेशन पॉलिसी का ऐलान कर चुकी है.
हालांकि, हम अभी तक प्राइवेटाइजेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ते हुए नहीं देख पा रहे हैं. उम्मीद है कि प्राइवेटाइजेशन की प्रक्रिया जल्द ही शुरू हो जाएगी और टैक्सपेयर्स को आखिरकार पता चल जाएगा कि अपने टैक्स के पैसे का अधिक कुशल तरीके से इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है.