पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार के दौरान एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना हुई मगर कई पुराने चेहरों की विदाई और नए चेहरों के आगमन के शोरशराबे में इस घटना की खबर कुछ दब सी गई एवं इस पर कोई खास चर्चा नहीं हो पाई. यह घटना थी सहकारिता मंत्रालय के रूप में एक नए मंत्रालय का उद्भव और वह भी एक अत्यंत महत्त्वपूर्णऔर ताकतवर माने जाने वाले मंत्री की देखरेख में!
ऐसा नहीं था कि इस मंत्रालय के गठन से पहले केंद्र सरकार में सहकारिता को ले कर कोई कामकाज नहीं होता था. पहले सहकारिता से जुड़े दायित्व कृषि मंत्रालय द्वारा निभाए जाते थे मगर सरकार के भीतर इसकी हैसियत दोयम दर्जे की थी। फिर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अचानक सहकारिता इतनी महत्त्वपूर्ण कैसे हो गई!
इस सवाल पर चर्चा करने से पहले हम भारत में सहकारिता आंदोलन की पृष्ठभूमि और इसके विकास का सिंहावलोकन कर लेते हैं. सहकारिता की नीव अंग्रेजी शासन के दौरान 1904 में रखी गई जब तत्कालीन सरकार ने इस बारे मे एक कानून बनाया। इसका उद्देश्य अत्यंत सीमित था- जरूरतमंद किसानों को जरूरत पड़ने पर कर्ज की व्यवस्था. यहां पर अंग्रेजों का स्वार्थ यह था कि अकाल या अन्य आपदाओं के दौरान भी कृषि लगान की उगाही आराम से होती रहे। 1904 के प्रारंभिक कानून में समय समय पर बदलाव भी होते रहे. आजादी के बाद सहकारिता को संविधान की राज्य सूची में रखा गया यानि इस विषय पर कानून बनाने की जवाबदेही राज्यों की थी.
स्वतंत्र भारत में सहकारिता आंदोलन का विकास हुआ तो अवश्य मगर अत्यंत सीमित रूप में। इस आंदोलन का सबसे शानदार उदाहरण है, गुजरात कोआपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन, जिसका अमूल ब्रांड देश का एक जानामाना नाम है। 1973 में अस्तित्व में आयी यह संस्था देश में श्वेत क्रांति के लिए जानी जाती है. इस संस्था ने गौपालक किसानो की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने और देश में दूध का उत्पादन बढ़ाने में चामत्कारिक भूमिका निभाई है. इस संस्था के जनक वर्गीज कुरियन की जन्म शताब्दी इसी वर्ष मनाई जा रही है.
भारत मे सहकारिता आंदोलन का एक और प्रकाशवान नक्षत्र है, इफको। सहकारिता क्षेत्र का यह उद्योग देश का सबसे बड़ा खाद उत्पादक है और इसका उत्पाद देश के पांच करोड़ किसानों तक पहुंचता है। ये दोनों सहकारी संस्थाएं यह सिद्ध करती है कि यदि सहकारिता की मूल भावना का कार्यान्वयन मेहनत, लगन, ईमानदारी और पेशेवर कुशलता के साथ करते हुए आधुनिक प्रबंध तकनीकों का कल्पनाशील प्रयोग किया जाए तो सहकारिता आंदोलन देश का कायाकल्प कर सकता है.
सहकारिता आंदोलन के कतिपय और भी उदाहरण है; जैसे, इंडियन कॉफी हाउस, जो कर्मचारियों का सहकारी संगठन है। कर्नाटक मिल्क फेडरेशन, केरल का फार्मफेड और महाराष्ट्र के चीनी मिल भी इस आंदोलन के अच्छे उदाहरण माने जा सकते हैं।
सहकारिता आंदोलन मुख्य रूप से दूध, चीनी, खाद,कपास, फल, अनाज तथा बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में प्रखर रहा है। मगर अन्य दूसरे क्षेत्रों में भी इस आंदोलन के द्वारा बहुत कुछ किया जा सकता है। बतौर उदाहरण, केरल में तो आई टी उद्योग और मेडिकल कॉलेज के संचालन में भी सहकारिता का प्रवेश हो गया है I सहकारिता आंदोलन ने शहरों में मध्य वर्ग के लोगों के लिए उचित मूल्य में मकान उपलब्ध कराने में भी बड़ी भूमिका निभाई है।
लेकिन यह भी कड़वा सच है कि सहकारिता आंदोलन का प्रभाव का मुख्य रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक और केरल जैसे राज्यों तक ही सीमित रहा है. अन्य राज्यों में इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए आवश्यक संकल्पशक्ति का अभाव रहा है। जैसा कि अमूल के उदाहरण से स्पष्ट है, यदि अन्य राज्यों द्वारा इस दिशा में मेहनत और लगन से प्रयास किया जाता तो शायद देश कहीं का कहीं पहुंच गया होता.
केंद्र ने 2002 में अटल सरकार के कार्यकाल में इस दिशा में कदम उठाए थे और बहु राज्यीय सहकारी संगठनों की स्थापना के लिए एक कानून भी लाया गया. मगर आगे के दिनों में इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं हो पाया.
मोदी सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है, किसानों की आय दोगुनी करना. इसके लिए सभी आवश्यक कदम उठाने आवश्यक हैं। इस दिशा में पिछले वर्ष सरकार ने तीन कृषि सुधार कानून भी बनाए. सहकारिता मंत्रालय का गठन इसी दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है. मोदी जी स्वयं गुजरात से हैं और सहकारिता की शक्ति से भली भांति परिचित हैं. इस मंत्रालय का जिम्मा अमित शाह को दिया गया है जो अपने राजनीतिक जीवन के प्रारंभ में सहकारिता आंदोलन से जुड़े रह चुके है.
मोदी सरकार का फैसला सही दिशा में उठाया गया एक सही कदम है मगर इसकी सफलता प्रभावी कार्यान्वयन पर निर्भर करेगी. साथ ही यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि सहकारिता संगठनों का संचालन पेशेवर और कुशल विशेषज्ञों के हाथों में हो और जमीन से जुड़ा हुआ हो. साथ ही इन्हें राजनेताओं के हाथ का खिलौना बनने से बचाना होगा ताकि ये महाराष्ट्र के कई सहकारी बैंकों की दुर्दशा को प्राप्त न हों. वैसे अभी तक के अनुभव यही बताते हैं कि मौजूदा केंद्र सरकार में राजनैतिक संकल्पशक्ति का अभाव दूर दूर तक नहीं है.