अगले साल देश के 7 राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं. चुनाव का बिगुल बज गया है और आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस ने क्रमशः गोवा और पंजाब में चुनावी रेवड़ियां बांटने का ऐलान कर दिया है. अरविंद केजरीवाल ने गोवा में 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का वादा किया है, वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब में किसानों के कर्ज माफ करने का वादा किया है.
हालांकि, ये योजनाएं और वादे लोक-लुभावने लगते हैं और जनता इनसे खुश हो सकती है, लेकिन इनसे अर्थव्यस्था का एक बड़ा सवाल भी पैदा होता है. अगर सरकार के पास ऐसी रियायतें देने के लिए खजाने में पर्याप्त पैसा है तो इन वादों को करने में कोई हर्ज नहीं है, हालांकि तब भी ये खर्च कम से कम होना चाहिए ताकि इस पैसे का इस्तेमाल आर्थिक संपत्ति खड़ी करने में हो सके जिससे और ज्यादा रेवेन्यू और आमदनी का स्तर पैदा किया जा सके.
हालांकि, पंजाब कर्ज के बोझ तले दबा राज्य है और किसानों के कर्ज माफ करने के लिए राज्य को बड़ी मात्रा में पैसा चाहिए. देश में कर्ज माफ करने के गलत आर्थिक फैसलों की परंपरा चल पड़ी है. पंजाब सरकार ने ऐलान किया है कि वह 520 करोड़ रुपये के किसानों के कर्जे माफ करेगी. इससे प्राइमरी एग्रीकल्चरल सोसाइटीज के 2.85 लाख मेंबर्स को फायदा होगा. इससे पहले 5.64 लाख किसानों के 4,624 करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए गए थे जो कि राज्य की कांग्रेस यूनिट का 2017 में चुनावी वादा था.
1990 में तत्कालीन पीएम वीपी सिंह ने देशभर में 10,000 करोड़ रुपये के किसान कर्ज माफ किए थे. 2008 में यूपीए सरकार ने 60,000 करोड़ रुपये के किसानों के कर्जों को माफ कर दिया था और इस तरह से इस मौजूदा वक्त की परंपरा की नींव डाल दी थी.
2017 में यूपी चुनावों से पहले बीजेपी ने राज्य में किसानों के कर्ज माफ करने का वादा किया था. इस तरह की कर्ज माफी योजनाओं की हमेशा से आलोचना होती रही है. सरकार को किसी एजेंसी को इस बात का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए कि इन चुनावी वादों से किसानों को लंबे वक्त में क्या फायदा हुआ है.