Lavender Farming: जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में करीब 500 किसानों ने मक्के की पारंपरिक खेती छोड़ लैवेंडर (Lavender) के फूल की खेती शुरू की है. ये उनके लिए अपेक्षाकृत अधिक फायदेमंद साबित हो रही है. इसे ‘पर्पल रेवोल्यूशन’ की शुरुआत कहा जा रहा है. वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) ने छोटे और सीमांत किसानों की आय बढ़ाने के लिए पूरे देश में सुंगध वाली फसलों यानी एरोमेटिक प्लांट्स के उत्पादन को लोकप्रिय करने और मूल्य संवर्धन के लिए सुगंध मिशन या एरोमा मिशन की शुरुआत की है.
हजारों किसान करना चाहते हैं आज लैवेंडर की खेती
इसके बारे में सीएसआईआर-आईआईआईएम जम्मू के सीनियर साइंटिस्ट डॉ सुमित गैरोला ने प्रसार भारती को बताया कि मार्च 2020 तक सीएसआईआर के सुगंध मिशन के तहत 500 किसानों को 100 एकड़ जमीन में लैवेंडर की खेती के लिए आठ लाख पौधे मुफ्त में दिए हैं. ऊंचाई वाले क्षेत्रों में फसलों की उत्पादकता कम होती है, यहां किसानों के पास कम भूमि होती है, कभी-कभी आधा एकड़ या उससे भी कम. इस खेती से जो आमदनी होती है उससे लोग सालाना खर्चा भी नहीं उठा पाते हैं. सीएसआईआर ने इन क्षेत्रों में कुछ ऐसी फसलें लगाने का सोचा जो किसानों को उनकी पारंपरिक खेती से ज्यादा फायदा दे. इसीलिए यहां के किसानों को लैवेंडर की खेती की सलाह दी गई.
वह कहते हैं, लैवेंडर एक यूरोपियन क्रॉप है, पहले इसको कश्मीर में इंट्रोड्यूस किया गया और उसके बाद हमने ये जम्मू के डोडा, किश्तवाड़ और भदरवा क्षेत्रों में लगाया. इस दौरान हमने पाया कि ये किसानों को ज्यादा फायदा दे रही हैं. तब हमने इसका प्रचार किया. हजारों किसान आज लैवेंडर की खेती करना चाहते हैं.”
आत्मनिर्भर बनना है मकसद
डॉ सुमित गैरोला कहते हैं कि कॉउन्सिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च पिछले 40-50 सालों से ऐसी बहुत-सी फसलों पर शोध कर रहा है जो ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लगाई जा सके. इन्हें कैश क्रॉप या नकदी फसल कहते हैं, बाजार में इनकी कीमत बहुत होती है. एरोमा मिशन की शुरुआत 2017 में हुई थी. आज हम इसके दूसरे फेज में हैं. इन क्रॉप्स को बढ़ाने का मकसद आत्मनिर्भर बनना है और ‘आत्मनिर्भर भारत’ के मूलमंत्र को आगे बढ़ाना है. साथ ही ऐसे क्षेत्रों में एरोमेटिक प्लांट्स लगाने हैं जहां प्रोडक्टिविटी कम है.
लैवेंडर की फसल आज दे रही है हजारों रुपयों का फायदा
वह आगे कहते हैं, “जम्मू के डोडा जिले में जब हमने लैवेंडर (Lavender) की शुरुआत की तो पाया कि मक्के की एक एकड़ खेती से किसानों को मुश्किल से 10 से 11 हजार रुपये तक ही आय होती है. वहीं लैवेंडर की अगर बात करें तो इससे 40-50 हजार रुपये तक आय होती है.” लैवेंडर एकबार लगाने के बाद 10 से 12 साल तक रहता है. ये एक बारहमासी फसल है और इसकी खेती बंजर भूमि पर भी की जा सकती है. इसे न्यूनतम सिंचाई की आवश्यकता होती है. सबसे रोचक बात लैवेंडर की खेती दूसरी बड़ी फसलों के साथ भी की जा सकती है. इसे इंटरक्रॉप के तौर पर भी उगाया जा सकता है.
भविष्य को लेकर क्या योजनाएं हैं?
सीएसआईआर के अनुसार, इस मिशन के अंतर्गत 5000 एकड़ भूमि पर फसलों की खेती का लक्ष्य रखा गया है. भविष्य को लेकर योजनाओं के बारे में डॉ सुमित कहते हैं कि हम एरोमेटिक फसलों को हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में लेकर जाना चाहते हैं. इनकी वैल्यू एडिशन, प्रोडक्ट वैल्यू को बढ़ाना चाहते हैं ताकि लोकल लेवल पर इसके प्रोडक्ट्स बन सकें. किसान रॉ ऑइल बेचने की बजाय खुद प्रोडक्ट बनाकर बेचे. वह कहते हैं, “हम चाहते हैं कि एरोमेटिक प्लांट्स की नई और बड़ी कंपनियां शुरू हों.”
लैवेंडर के क्या फायदे हैं?
– इसके फायदों की अगर बात करें तो खेती को नुकसान पहुंचाने वाले जानवर, जैसे बंदर मवेशी आदि लैवेंडर को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.
-ये जून-जुलाई के दौरान 30-40 दिनों के लिए एकबार फूल उत्पादन करता है और इससे लैवेंडर तेल, लेवेंडर वॉटर, ड्राई फ्लावर और अन्य चीजें मिलती हैं.
-सीएसआईआर की रिपोर्ट के अनुसार, 1 हेक्टेयर में लगाई फसल से हर साल कम-से-कम 40 से 50 किलोग्राम तेल निकाला जा सकता है. लैवेंडर तेल का मूल्य आज करीब 10 हजार रुपये प्रति किलो है. इससे हर साल 2,50,000 रुपये से लेकर 3,50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है.