पहले आयशर मोटर्स के सिद्धार्थ लाल और अब बालाजी टेलीफिल्म्स की शोमा और एकता कपूर. शेयरहोल्डर ऊंचे पद पर बैठे अधिकारियों के सैलरी हाइक पर असहमति जताने लगे हैं. टॉप एग्जिक्यूटिव सैलरी के नाम पर कितने पैसे पा रहे हैं और उन्हें अन्य कितने फायदे मिल रहे हैं, इसपर नजर रखना बेहद जरूरी होता है. हालांकि, शेयरधारकों का एक्टिविज्म सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहना चाहिए.
कॉरपोरेट गवर्नेंस के मोर्चे पर कई नई चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि सैलरी पर असहमति के चलते कहीं कंपनी की ग्रोथ न थम जाए. इंफोसिस के विशाल सिक्का वाले किस्से से सबक लिया जा सकता है कि किस तरह ऐसे मुद्दे कंपनी को लक्ष्य से भटका सकते हैं.
किसी कंपनी के बोर्ड में शामिल इंडिपेंडेंट डायरेक्टरों की भूमिका अधिकतर सीमित देखी गई है. सर एड्रियन कैडबरी ने 90 के दशक में उनका महत्व कॉरपोरेट गवर्नेंस से जोड़कर पेश किया था. इसमें उनकी तरफ से रिम्यूनरेशन (मुआवजा) और ऑडिट के लिए कमेटियां बनाना शामिल था.
कैडबरी की कमेटी रिपोर्ट को अगर मॉडल के रूप में अपनाया जाए, तो फायदा मिल सकता है. उन्होंने सुझाव दिया था कि मुआवजा से जुड़े मसलों के लिए बनाए जाने वाली कमेटी के अधिकतर सदस्य नॉन-एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर होने चाहिए. इसी तरह ऑडिट वाली समिति में ऐसे कम से कम तीन सदस्य होने चाहिए.
आज के कॉरपोरेट जगत में स्वतंत्र निदेशकों (independent directors) की भूमिका बड़ी है और कई बड़े मसलों पर एक्शन लिया जाना बाकी है. बाजार नियामक सेबी (SEBI) ने भी इनके रोल को महत्वपूर्ण बताया है.
ऐसा कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए, जिससे कंपनियों के CEO और मैनेजिंग डायरेक्टर मनमर्जी फैसले न ले सकें. उनके पास बोर्ड में शामिल अधिकांश सदस्यों का समर्थन होता है. अनलिस्टेड कंपनियों में उनके लिए ऐसा करना पाना और भी आसान होता है.
किसी कंपनी को सफल बनाने में शेयरधारकों का बड़ा हाथ होता है. ऐसे में किसी तरह के फैसले के खिलाफ आवाज उठाने का हक भी उनके पास होता है. उन्हें असल परेशानियों को पहचानना होगा. कोरोना महामारी के कारण कई बदलाव हुए हैं और कॉम्पिटीशन भी तगड़ा हो गया है. बोर्डरूम को अब और कई बड़े मुद्दों का सामना करना पड़ सकता है.