अगर तमिलनाडु की खूबी इडली-डोसा हैं, पंजाब के पास चिकन बटर मसाला, बंगाल में रसगुल्ला और हिलसा है तो हैदराबाद की खूबी यहां की हलीम है. खासतौर पर रमजान के महीने में हैदराबाद की हलीम की बात ही कुछ और होती है. हलीम के हैदराबाद पहुंचने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. यह एक सैकड़ों साल पुरानी ईरानी डिश है जिसका हैदराबाद पहुंचने पर भारतीयकरण हो गया. हालांकि, दुख की बात ये है कि हैदराबाद की मशहूर हलीम पूरे साल नहीं मिलती है.
छठवें निजाम के वक्त हैदराबाद आई थी हलीम
अवध की बिरयानी को कोलकाता में नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) के साथ यहां आए शेफ लाए थे. वाजिद अली शाह ने कोलकाता में अपने आखिरी 31 साल गुजारे थे. 1856 में अवध का विलय अंग्रेजी शासन में होने के बाद वे यहां आ गए थे. इसी तरह से छठवें निजाम महबूब अली खान (1866-1911) के शासन के वक्त हैदराबाद में हलीम लाई गई थी.
महबूब अली खान ऐसे पहले निजाम थे जो कि पश्चिमी शिक्षा से रूबरू हुए थे. उनकी सेना में मौजूद अरबी सैनिक हलीम को हैदराबाद लाए थे. ऐसा कहा जाता है कि अपने घर से दूर मौजूद सैनिकों ने घर के खाने का लुत्फ उठाने के लिए हैदराबाद में ही हलीम बनाई. इसे निजाम के दरबार में भी पेश किया गया.
लेकिन, इसकी लोकप्रियता सातवें निजाम उस्मान अली खान के शासन के दौरान 1911 से 1948 के बीच बढ़ी.
ईरानी डिश हरीस का भारतीयकरण है हलीम
फूड हिस्टोरियंस ने लिखा है कि हलीम हरीस का भारतीय वर्जन है. हरीस को ईरान और पश्चिम एशिया के बड़े हिस्से में बनाया जाता था.
इसे गोश्त, गेहूं, दालों, मसालों के साथ पकाया जाता है और इसे नींबू की कुछ बूंदों, कटे हुए प्याज और धनिया के साथ परोसा जाता है. धीमीं आंच पर गोश्त तकरीबन घुल जाता है.
परंपरागत तौर पर इसे लकड़ी की आग में घंटों पकाया जाता है और शेफ कहते हैं कि किसी को इसे लगातार चलाना चाहिए.
सैकड़ों साल पुरानी डिश जो रमजान के दौरान हैदराबाद की हर गली में मिलेगी
कुछ लोग हलीम में सूखे मेवे भी डालते हैं, खासतौर पर हैदराबाद में ऐसा होता है. हैदराबाद में हल्का मीठा हलीम भी बिकता है. हालांकि, ये कम लोकप्रिय है. रमजान के महीने में हलीम की मांग और बढ़ जाती है.
हरीस सैकड़ों साल पुरानी ईरानी डिश है. यह आज भी जिंदा है और भारत में ये तब्दील होकर हलीम हो गई है. शहर की भीड़भाड़ वाली गलियों में आपको सड़क किनारे बड़े पतीलों में कोयले पर पकती हलीम दिखाई देगी. ये यहां के बड़े होटलों में भी मिलती है. हालांकि, हलीम आपको रमजान के दौरान हर जगह मेनू में मिलेगी और इसके बाद ये कम जगहों पर ही मिलती है.
गलियों में मिलने वाली हलीम कई दफा पतली होती है, जबकि बढ़िया रेस्टोरेंट्स में ये ज्यादा गाढ़ी और ज्यादा मीट वाली होती है. निश्चित तौर पर कीमतों में भी अंतर होता है.