देश के 17 प्रमुख राज्यों द्वारा अपनी इकाइयों को दी गई कुल ऋण गारंटी वित्त वर्ष 2022-23 तक तीन गुना से अधिक होकर 9.4 लाख करोड़ रुपये हो गई है. यह वित्त वर्ष 2016-17 में तीन लाख करोड़ रुपये थी. हालांकि, गारंटियां आकस्मिक देनदारियां हैं. ये राज्यों के राजकोषीय तंत्र के लिए जोखिम उत्पन्न कर सकती हैं. ऐसे में राज्यों को एक मजबूत गारंटी निगरानी की जरूरत होती है, ताकि उनकी वित्तीय प्रणाली कुल मिलाकर जुझारू बनी रहे. राज्य अक्सर अपने विभिन्न उद्यमों, सहकारी संस्थानों और शहरी स्थानीय निकायों की ओर से अपने ऋणदाताओं के पक्ष में गारंटी देते हैं और जारी करते हैं जो आमतौर पर बैंक या अन्य वित्तीय संस्थान होते हैं.
इक्रा रेटिंग्स की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर ने रिपोर्ट में कहा कि देश के 17 प्रमुख राज्यों द्वारा अपनी इकाइयों को दी गई कुल ऋण गारंटी 2016-17 में तीन लाख करोड़ रुपये से तीन गुना होकर 9.4 लाख करोड़ रुपये हो गई है. वास्तव में, ऐसी गारंटी पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ रही है. वित्त वर्ष 2016-17 में तीन लाख करोड़ रुपये से वित्त वर्ष 2020-21 में 7.7 लाख करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2021-22 में यह नौ लाख करोड़ रुपये हो गई.
रिपोर्ट में गोवा के साथ-साथ पूर्वोत्तर राज्य और अन्य पहाड़ी राज्य को शामिल नहीं किया गया. भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के दिशानिर्देशों में किसी राज्य द्वारा गारंटी सीमा सुनिश्चित करने के लिए सख्त नियम शामिल हैं, जो वर्तमान में अधिकतर राज्यों द्वारा लागू किए जा रहे हैं. इसमें बढ़ी हुई निगरानी के अलावा गारंटी के लिए जोखिम भार निर्दिष्ट करना भी शामिल है. गौरतलब है कि वर्ष 2022-23 में कुल राजकोषीय घाटे के 78.6 फीसद की भरपाई राज्यों की ओर से बाहर के स्रोतों से उधार लेकर की गई थी.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक रिजर्व बैंक की कार्य समूह की रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि राज्य सरकारों की ओर से गारंटी देने की आदत पर अंकुश लगाया जाए. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि राज्यों को एक साल में कुल राजस्व संग्रह के 5 फीसद या इनके कुल GDP का 0.5 फीसद से ज्यादा की राशि की गारंटी नहीं दिए जाने का सुझाव दिया गया है.