कोरोना के तीसरे दौर (Corona Third Wave) को लेकर जितनी चर्चा हो रही है उससे ज़्यादा चर्चा इस बात पर हो रही है कि बच्चों पर इसका कितना प्रभाव पड़ेगा. ये बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि बच्चों को पूरी तरह इसोलेशन या पृथक वास में नहीं रखा जा सकता है. सामान्य तौर पर माता – पिता को उनके साथ रहना होगा. ऐसी स्थिति में माता – पिता भी संक्रमित हो सकते हैं. तब ये बीमारी एक व्यक्ति का नहीं होकर पूरे परिवार का बन सकता है. तीसरा वेव या दौर (Corona Third Wave) आएगा या नहीं और कितना घातक होगा यह इस बात पर निर्भर है कि अगले तीन से चार महीनों में हम कितने लोगों को वैक्सिन का दोनों डोज़ दे पाते हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि अगले तीन चार महीनों में अगर हम देश के क़रीब सौ करोड़ लोगों को वैक्सिन लगा पाते हैं तो तीसरे वेव (Corona Third Wave) का असर कम हो सकता है और ये दूसरे दौर की तरह जानलेवा भी नहीं होगा लेकिन तीन चार महीनों में सौ करोड़ लोगों को टीका लग पाना बहुत मुश्किल लग रहा है. टीका अभी भी राजनीति के भंवर में फंसा हुआ है. टीके के उत्पादन की जो रफ़्तार अभी है उसके हिसाब से तीन चार महीनों में टीके का दो सौ करोड़ डोज़ उपलब्ध होना भी आसान नहीं है.
सबसे बड़ी समस्या है कोरोना वायरस का म्यूटेशन के ज़रिए बार बार रूप बदलना और पहले से ज़्यादा घातक हो जाना है. दूसरे वेव में दोहरे या डबल म्यूटेशन के ज़रिए एक नया रूप आया जो पहले के मुक़ाबले 70 प्रतिशत ज़्यादा तेज़ी से फैला और फेफड़े पर ज़्यादा तेज़ी से हमला करने में सक्षम था.
वैज्ञानिकों ने इसे डेल्टा नाम दिया था. अब कोरोना का एक नया रूप सामने आ चुका है जिसे डेल्टा प्लस नाम दिया गया है. इसे पहली बार नेपाल में देखा गया और अब भारत और ब्रिटेन में इसके काफ़ी केस मिल चुके हैं. डेल्टा प्लस को और भी ज़्यादा तेज़ी से फैलने वाला रूप माना जा रहा है. ये ज़्यादा घातक भी है। ब्रिटेन के डा अशोक जैनर का कहना है कि भारत में तीन से चार महीनों में तीसरा वेव आ सकता है. इससे मुक़ाबला के लिए अभी से तैयारी जरूरी है.
ख़ास कर इसलिए भी कि ये 18 साल से कम उम्र के बच्चों को भी प्रभावित कर सकता है। इसका एक कारण तो ये है कि इसका रूप और सूक्ष्म हो गया है. कोरोना का पहला रूप उतना सूक्ष्म नहीं था जितना दूसरा था। इसलिए पहले रूप ने बच्चों को कम प्रभावित किया और दूसरे रूप ने ज़्यादा।पहले और दूसरे दौर में भी बच्चों की सीमित संख्या में मौत हुई। द शिलोंग टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मेघालय में कोरोना से 17 बच्चों की मौत की रिपोर्ट हो चुकी है इनमें से 13 की मौत मई में हुई।
कोरोना वायरस आदमी के शरीर में मौजूद संग्राहकों या रिसेप्टरों के ज़रिए प्रवेश करते हैं. वयस्क की तुलना में बच्चों में ये रिसेप्टर बहुत कम संख्या में होते हैं इसलिए वायरस आसानी से बच्चों में प्रवेश नहीं कर पाते हैं. इसलिए बच्चों में कोरोना वायरस संक्रमण कम होता है। लेकिन बच्चे पूरी तरह सुरक्षित हैं, ऐसा नहीं है. कोरोना के पहले वेव में भी बच्चे संक्रमित हुए थे। इन्हें पूरी तरह कोरोना नहीं माना गया था क्योंकि इनके लक्षण और प्रभाव कुछ अलग थे.
कोरोना के पहले दौर में बच्चों में तेज़ बुखार, खुजली, चिडचिड़ापन, पेट दर्द, उल्टी, डायरिया और सीने में जलन जैसे लक्षण दिखाई दिए थे. इन्हें पी एम आई एस ( पीडियाट्रिक मल्टीसिस्टम इन्फ़्लैमटरी सिंड्रोम ) नाम दिया गया. तब यह तय नहीं था कि ये कोरोना ही है. लेकिन अब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू एच ओ ) ने भी मान लिया है कि ये लक्षण कोरोना के कारण ही थे. भारत में भी बच्चों में कोरोना के सबूत मिल चुके हैं। एक डॉक्टर के मुताबिक़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 16 से 20 साल के बच्चों में कोरोना के लक्षण मिल रहे हैं। सवाल ये है कि ये बच्चों के लिए जानलेवा है या नहीं?
डब्लू एच ओ और दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान (ए आई आई एम एस ) ने मिलकर मार्च से जून के बीच एक सर्वे किया, जिससे पता चला कि बच्चों में सेरो पोज़िटिविटी रेट काफ़ी हाई है. यानी भारतीय बच्चों का इम्यून सिस्टम काफ़ी मजबूत है. उनमें वायरस से लड़ने की क्षमता काफ़ी अधिक है. इससे ये नतीजा निकलता है कि बच्चों में संक्रमण हो भी तो उन्हें जीवन का नुक़सान कम होगा. लेकिन बच्चे कोरोना संक्रमण से सुरक्षित नहीं हैं. जिस रफ़्तार से वयस्कों में कोरोना संक्रमण बढ़ेगा उसी रफ़्तार से बच्चों में भी संक्रमण की दर ज़्यादा होगी.
18 साल से ज़्यादा उम्र के लोग वैक्सिन के कारण ज़्यादा सुरक्षित हो रहे हैं. लेकिन 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए वैक्सिन का अभी ट्रायल चल रहा है. केवल अमेरिका ने एक वैक्सिन को 12 साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों को लगाने की अनुमति दी है. भारत सहित दुनिया के बाक़ी देशों में बच्चों पर वैक्सिन का ट्रायल दो से तीन महीनों में पूरा होने की उम्मीद है. ज़ाहिर है कि अगर तीसरा वेव तीन चार महीनों में आ गया तो ज़्यादातर बच्चों को वैक्सिन सुरक्षा देना संभव नहीं हो पाएगा. एक बात और महत्वपूर्ण है. कोरोना में किसी की मौत वायरस के कारण नहीं होती है. मौत का कारण वायरस को ख़त्म करने के लिए हमारे इम्यून सिस्टम या आंतरिक सुरक्षा प्रणाली का अति सक्रिय हो जाना होता है.
इसके चलते फेफड़े और ब्लड वेसल (धमनी और शिरा) में ख़ून का थक्का जमने लगता है. इससे ख़ून में आक्सीजन की कमी होने लगती है जो मुख्य तौर पर मौत का कारण बनता है। सामान्य भाषा में इसे निमोनिया भी कहते हैं. बच्चे भी वायरस के कारण निमोनिया से सुरक्षित नहीं हैं. इसलिए बच्चों में वायरस के संकट को कम करके आंकना घातक साबित हो सकता है.
(“कोरोना जानो समझो बचो” किताब के लेखक)
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