Economics: शाकाहारी या मांसाहारी थाली. सब कुछ पहले से तय या फिर जितना मन करे खा लो. अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रेस्त्रां या कैंटीन में ये सब बाते आप जरुर सुनते होंगे. यह भी पाया होगा कि मांसाहारी की तुलना शाकाहारी थाली सस्ती होती है. एक बात और गौर किया होगा कि थाली की सामग्री अलग-अलग ऑडर्र करें तो आपको ज्यादा कीमत अदा करनी होगी. एक थाली में पांच चीजें हों, वहीं पांच चीजें अगर आप अलग-अलग मंगाए तो उसकी कुल कीमत, थाली की कीमत से ज्यादा हो सकती है. वजह है अलग-अलग मंगवाने पर मात्रा और थाली में उपलब्ध करायी गयी मात्रा. ये सब कीमत किसी भी रेस्त्रां में लागत और फिर उसमें मुनाफा जोड़ कर तय होता है. अब जरा सोचिए कि अगर घर में उसी तरह थाली तैयार की जाए तो उसकी कीमत क्या होगी?
मतलब क्या है थाली का अर्थशास्त्र?
आर्थिक समीक्षा ने थाली के अर्थशास्त्र (Economics) यानी थालीनॉमिक्स को समझाने की कोशिश की है. दरअसल, ये कवायद 2019-20 की आर्थिक समीक्षा में शुरु की गई थी, अब नई समीक्षा में इसे सरल तरीके से समझाने की कोशिश की गई है. बीते साल एक परिवार के लिए थाली कितनी महंगी हुई या सस्ती, उस पर चर्चा की गई. अबकी साल ये बताया गया कि जून से दिसंबर, 2020 के दौरान कहां सबसे महंगी थाली थी और कहां सबसे सस्ती. ध्यान रहे कि देशबंदी की वजह से अप्रैल और मई के दौरान कीमतों के आंकड़ों को जुटाना आसान नहीं था, इसीलिए आकंलन के लिए जून-दिसंबर का समय चुना गया.
समीक्षा बताता है कि अगर ग्रामीण इलाकों के बात करें तो अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में शाकाहारी थाली की कीमत 38.70 रुपये थी जो सभी जगहों के मुकाबले सबसे महंगा, जबकि उत्तर प्रदेश में सबसे सस्ती यानी 23.10 रुपये की एक थाली थी. ग्रामीण इलाकों में सबसे महंगी मांसाहारी थाली अरुणाचल प्रदेश (48.5 रुपये) की थी जबकि सबसे सस्ती चंडीगढ़ (29.9 रुपये).
शहरी इलाकों की बात करें तो जून-दिसंबर के दौरान एक बार फिर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह ने शाकाहारी थाली के मामले में 40 रुपये के साथ पहला मुकाम हासिल किया जबकि मध्य प्रदेश 24 रुपये के साथ सबसे निचले स्थान पर रहा. मांसाहारी थाली के मामले में मिजोरम 52.40 रुपये के साथ पहले स्थान पर और हरियाणा 28 रुपये के साथ आखिरी स्थान पर रहा.
ध्यान देने की बात ये है कि जून से नवंबर तक लगातार कीमत बढ़ती रही. वो तो भला मनाइए कि दिसंबर में सब्जियों के दाम औंधे मुंह नहीं गिरते तो ये सिलसिला आगे और भी बढ़ता. हालांकि परेशानी ये है कि कीमत में फिर से उछाल के लक्षण दिख रहे हैं. अगर ये हुआ तो आगे चलकर फिर से खुदरा महंगाई दर और संपूर्ण महंगाई दर में तेजी देखने को मिलेगी.
थाली के अर्थशास्त्र (Economics) के आंकलन के लिए 2011 में जारी किए गए Dietary Guidelines for Indians — A Manual by National Institute of Nutrition (NIN) को प्रमुख आधार बनाया गया. यहां देखा गया है कि कठिन काम करने वाले एक पुरुष के लिए किस तरह की जरूरत है. फिर ये देखा गया कि दिन में कम से कम दो बार पूरा भोजन लिया जाए जिससे पौष्टिकता की जरूरत पूरी हो. इस बात से इनकार नहीं हुआ कि ये हिसाब-किताब कुछ परिवार के लिए ज्यादा हो सकता है और कुछ के लिए कम. ऐसे में औसत से एक आम गणित तो सामने आ ही सकता है.
शाकाहारी थाली के लिए सामग्री में 300 ग्राम अनाज (चावल, गेहूं), 150 ग्राम सब्जियां (आलू, प्याज, टमाटर, बैंगन,गोभी, पत्तागोभी और भिंडी), 60 ग्राम दाल (अरहर, चना, मसूर, मूंग और उड़द की दाल), 0.2 ग्राम हल्दी, 0.5 ग्राम सूखी मिर्च, 1 ग्राम नमक, आधा ग्राम धनिया और 10 ग्राम खाने के तेल शामिल किए गए. इसी तरह मांसाहारी भोजन में दाल की जगह उसी मात्रा में मांसाहारी सामग्री (अंडा, ताजी मछली और बकरे का मांस) को शामिल किया गया. इन सभी सामग्री की कीमत के लिए लेबर ब्यूरो की तरफ से हर महीने जारी होने वाले खुदरा मंहगाई दर (औद्योगिक मजदूर) में शामिल कीमत के औसत आंकड़े को लिया गया, उस कीमत के हिसाब से एक परिवार कितना खर्च करता है, ये देखा गया. अंतिम कीमत तय करते वक्त ईंधन पर होने वाले खर्च को भी शामिल किया गया.
हर राज्य के लिए एक थाली की कीमत तय रन करने में खाना बनाने विधि, सामग्री और उसकी भारिता को आधार बनाया गया. राज्य की कुल आबादी को भी ध्यान में रखा गया.
बीते साल आर्थिक समीक्षा में ये जानने की कोशिश की गई थी कि थाली लोगों से कितनी दूर है या कितनी नजदीक. साथ ही पांच व्यक्तियों के एक परिवार में दो जून के खाने का खर्च कितना घटा है या कितना बढ़ा है. जानकारी मिली कि एक औसत औद्योगिक मजदूर की सालाना कमाई के आधार पर 2006-07 से 2019-20 के बीच शाकाहारी थाली (Economics) के लिए सामर्थ्य में 29 फीसदी और मांसाहारी थाली के लिए 18 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. यह भी पता चला कि 2015-16 से 2019-20 के बीच एक औसत परिवार को हर साल शाकाहारी थाली के मामले में 11000 रुपये और मांसाहारी थाली के मामले में करीब 12 हजार रुपये की फायदा हुआ, क्योंकि खाद्य सामग्री के दाम घटे.
अब क्या दो जून के लिए खाने का इंतजाम करना आसान होगा? हो सकता है कि सरकारी आंकड़ों में महंगाई दर कम होती नजर आए, लेकिन बाजार की हकीकत कुछ अलग ही होती है और वहां सरकार का इकबाल चलता है, आंकड़ा नहीं. एक और बात, समाज के एक बड़े तबके की महामारी के दौरान आय घटी है. अब ऐसे में उनके लिए थॉलीनमिक्स (Economics) बिगड़ जाए तो हैरान मत होइएगा.
अब अगली बार थाली सजी आपके सामने आए तो बस पकाने में इस्तेमाल की गई सामग्री की कीमत बस मत देखिएगा. उन हाथों की मेहनत का भी अंदाजा लगा लीजिएगा जिन्होंने खाना पकाया. सच पूछिए तो इस मेहनत का कोई मोल नहीं और शायद यही वजह है कि थाली के अर्थशास्त्र में इसकी बात करना संभव नहीं.
(शिशिर सिन्हा- लेखक वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार हैं.)
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