असाधारण परिस्थितियों में असाधारण फैसले लेने ही पड़ते हैं. अमरीका, यूके और यूरोपीय यूनियन में जिन वैक्सीन्स को इस्तेमाल की इजाजत मिल चुकी है, उन्हें इस्तेमाल करने की इजाजत देने का भारत सरकार का फैसला इस लिहाज से एक उचित कदम है. यह फैसला ऐसे वक्त पर लिया गया है जबकि देश के कई राज्यों में वैक्सीन की तेजी से कमी हो रही है. इसके साथ एक तरह से देश का कोविड-19 वैक्सीन का मार्केट भी खुल गया है. अभी तक इस सेक्टर में सीरम इंस्टीट्यूट की कोवीशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सिन का ही दबदबा बना हुआ था.
हालांकि, और ज्यादा कंपनियों की एंट्री होने के साथ ही सरकार का कंपनियों को उनके उत्पादों के लिए लोगों से पैसे लेने की इजाजत देना भी अहम हो गया है. इस बात में कोई दोराय नहीं है कि सरकार को अपनी तरफ से मुफ्त में वैक्सीन लगाने की मुहिम को पूरी रफ्तार से जारी रखना चाहिए. निश्चित तौर पर इस तरह की महामारी में लोगों की जिंदगियां बचाने के लिए सरकार को हर मुमकिन प्रयास करना चाहिए और फ्री वैक्सीन उन्हीं में से एक है.
लेकिन, साथ ही सरकार को एक ऐसी नीति के बारे में भी सोचना चाहिए जिसमें मैन्युफैक्चरर्स और इंपोर्टर्स को कस्टमर्स से उनके उत्पाद की कीमत लेने की इजाजत दी जाए. इन वैक्सीन्स को प्राइवेट सेक्टर के जरिए वितरित कराया जा सकता है. निश्चित तौर पर इनकी कीमत अलग-अलग हो सकती है, लेकिन ऐसे वक्त पर जबकि सरकार की मुफ्त मुहैया कराई जा रही वैक्सीन की संख्या कम हो रही है, बड़ी तादाद में नौकरियां गई हैं और अर्थव्यवस्था की हालत मुश्किल बनी हुई है, सरकार निजी सेक्टर को पैसे लेकर वैक्सीन लगाने की इजाजत दे सकती है. हालांकि, जो लोग वैक्सीन नहीं खरीद सकते हैं उन्हें सरकार की ओर से मुफ्त में ही वैक्सीन लगनी चाहिए और सरकार को वैक्सीनेशन की रफ्तार में और तेजी लानी चाहिए.
हालांकि, निजी सेक्टर की लाई जाने वाली वैक्सीन की कीमतों को नियंत्रित रखने का तब कोई मतलब नहीं बनता जबकि देश की आबादी का एक हिस्सा इन्हें खरीदने में समर्थ हो. इस साल सरकार ने वैक्सीनेशन प्रोग्राम के लिए 35,000 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. ऐसे में सरकार को इस पैसे का इस्तेमाल ऐसे लोगों को वैक्सीन मुहैया कराने पर करना चाहिए जिनकी वैक्सीन खरीदकर लगवाने की क्षमता नहीं है.