पिछले हफ्ते मार्केट रेगुलेटर सेबी ने म्यूचुअल फंड हाउसेज को निर्देश दिया है कि वे अपने प्रमुख कर्मचारियों की सैलरी का 20 फीसदी हिस्सा उनके द्वारा मैनेज की जा रही स्कीमों में यूनिट्स के तौर पर दें.
इस कदम का मकसद निवेशकों के हितों की रक्षा करना है. यह नियम उत्तरदायित्व की भावना पैदा करेगा और मैनेजर्स और यूनिटहोल्डर्स के हितों को एकसाथ लाएगा.
इस कदम से स्कीम्स के परफॉर्मेंस को लेकर जवाबदेही भी बढ़ेगी. ये स्कीम्स इन्हीं प्रमुख एंप्लॉयीज पर निर्भर होती हैं. साथ ही इससे म्यूचुअल फंड इनवेस्टर्स का इन स्कीम्स पर भरोसा भी बढ़ेगा.
इस नियम में ऐसे सभी प्रमुख एंप्लॉयीज को कवर किया गया है जो अलग-अलग विभागों के हेड के तौर पर काम करते हैं और फंड मैनेजमेंट की प्रक्रिया से जुड़े सभी कर्मचारी भी इसमें शामिल किए गए हैं.
इन कैटेगरीज में फंड मैनेजर्स, रिसर्च टीमें, और डीलर्स समेत दूसरे लोग आते हैं.
सेबी ने एक्सचेंज-ट्रेडेड फंड्स और इंडेक्स फंड्स को इनसे बाहर रखा है क्योंकि ये पैसिव नेचर के होते हैं.
समय-समय पर सेबी इनवेस्टर्स की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम उठाता रहता है. 2014 में सेबी ने AMC को अपने प्रबंधन वाली सभी स्कीमों में निवेश करने के लिए कहा था.
सेबी का हालिया कदम फ्रैंकलिन टेंपलटन म्यूचुअल फंड डेट के संकट के बाद आया है. फोरेंसिक ऑडिट में पता चला था कि इस फंड हाउस के सीनियर मैनेजर्स ने स्कीमों के बंद होने से ठीक पहले अपने पैसे का एक हिस्सा निकाल लिया था.
इससे म्यूचुअल फंड मार्केट में मौजूद लाखों इनवेस्टर्स का भरोसा हिल गया था.
ऐसे में सेबी का फैसला एक सही दिशा में उठाया गया कदम है. इसमें तीन साल का लॉक-इन पीरियड भी शामिल किया गया है.
सेबी के इस फैसले पर म्यूचुअल फंड्स आपत्ति उठा सकते हैं क्योंकि इसमें न सिर्फ सीनियर एंप्लॉयीज को शामिल किया गया है, बल्कि इसमें ऐसे जूनियर रिसर्च स्टाफ को भी शामिल किया गया है जो कि वरिष्ठ कर्मचारियों जितना पैसा नहीं कमाते हैं.
इस लिहाज से इस कदम का असर 10-15 लाख रुपये सालाना कमाने वाले कर्मचारियों के कैश-फ्लो पर भी पड़ सकता है.