भारत में 1,481 नॉन-शेड्यूल्ड शहरी को-ऑपरेटिव बैंक चल रहे हैं. इसके अलावा 53 शेड्यूल्ड अर्बन को-ऑपेरिटव बैंक भी काम कर रहे हैं. ये आंकड़ा इस साल 31 जनवरी का है.
इन सभी बैंकों में 8.5 करोड़ जमाकर्ताओं का करीब 5 लाख करोड़ रुपये जमा है.
गुजरे कुछ वर्षों में को-ऑपरेटिव बैंक गलत वजहों से सुर्खियों में रहे हैं. इसके चलते रिजर्व बैंक (RBI) ने कई को-ऑपरेटिव बैंकों पर नियमों के उल्लंघन और वित्तीय स्थिति गड़बड़ाने की वजह से कड़ी कार्रवाई भी की है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में ही RBI ने करीब 106 निर्देश जारी कर या तो इन बैंकों के कारोबारी कामकाज पर पाबंदियां लगाई हैं, या फिर पिछली पाबंदियों को बढ़ाया है.
ऐसे में इन बैंकों में पैसा जमा कराने वालों को सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. हालांकि, जमाकर्ताओं की पूंजी की सुरक्षा के लिए फाइनेंस मिनिस्ट्री ने शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों में बैंक डिपॉजिट इंश्योरेंस को पहले के 1 लाख रुपये से बढ़ाकर 5 लाख रुपये कर दिया है.
लेकिन, DICGC से इन जमाकर्ताओं को क्लेम हासिल करने में एक मुश्किल प्रक्रिया पर चलना पड़ता है. जमाकर्ताओं को लिक्विडिटी देने के मकसद से RBI ने कुछ तरह के विद्ड्रॉल्स को मंजूरी दी है.
पंजाब महाराष्ट्र को-ऑपेरटिव (PMC) बैंक का उदाहरण लें, जहां डिपॉजिटर्स को हार्डशिप के आधार पर 5 लाख रुपये तक विद्ड्रॉल करने की इजाजत दी गई है. इन वजहों में कोविड समेत टर्मिनल बीमारी के इलाज जैसी चीजें शामिल हैं.
लेकिन, ये पर्याप्त नहीं है. कोविड की दूसरी लहर और स्थानीय स्तर पर लागू किए गए लॉकडाउन को देखते हुए कई लोगों के लिए अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना मुश्किल हो रहा है.
लॉकडाउन का एक गहरा आर्थिक असर पड़ा है. इसी के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि राज्यों को लॉकडाउन को आखिरी उपाय के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए.
कोविड की वजह से लगे लॉकडाउन ने समाज के एक बड़े तबके के लिए हार्शशिप (या मुश्किलों) की परिभाषा को बदल दिया है. RBI को भी मौजूदा हालात को देखते हुए अपनी इस परिभाषा को और व्यापक बनाना होगा.
लोग अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा इन बैंकों में जमा करते हैं, ऐसे में उन्हें जरूरत के वक्त इसे निकालने की इजाजत दी जानी चाहिए.