कोविड महामारी ने जिंदगियों और रोजगार को भारी नुकसान हुआ है. इस महामारी ने किस तरह की तबाही मचाई है इसका अंदाजा Fixed Deposits, PPF और EPF जैसे सुरक्षित निवेशों से लोगों के बड़े पैमाने पर अपना पैसा निकालने से लगाया जा सकता है. जिनके पास नौकरी नहीं है उनके लिए और बड़ी मुसीबत है.
दूसरी ओर, सरकार कोविड किट्स (टेस्ट, स्कैन, थर्मामीटर, ऑक्सीमीटर और ऑक्सीजन सिलेंडर, कॉन्सनट्रेटर्स और रेमडेसिविर जैसी दवाओं) की कीमतों को भी काबू नहीं कर पा रही है. कोविड की तीसरी लहर का खतरा मंडरा रहा है और ऐसे में कोविड किट की कीमतों में कमी करना वक्त की जरूरत है.
इस बात का एक जायज सवाल उठ रहा है कि आखिर क्यों सरकार कोविड-19 के इलाज में काम आने वाली इन दवाओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कमोडिटीज एक्ट, 1955 और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 जैसे कानूनों का इस्तेमाल नहीं कर रही है.
दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते दिल्ली सरकार को निर्देश दिया है कि वह हॉस्पिटलों और नर्सिंग होम्स के कोविड मरीजों से लिए जा रहे पैसों की हद तय करे. इसके बाद दिल्ली सरकार ने एक सर्कुलर जारी किया और निजी अस्पतालों में कोविड मरीजों के इलाज का खर्च तय कर दिया. लेकिन, ये कहीं भी प्रभावी नहीं है.
डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्युटिकल्स (DoP) के तहत आने वाली नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (NPPA) दवाओं की कीमतें तय करने के लिए वाली स्वायत्त संस्था है. मौजूदा वक्त में ये अथॉरिटी खुद कोविड की दवाओं की मांग का अंदाजा लगाने और इनकी कीमतों हो रही बढ़ोतरी को रोकने में नाकाम रही है.
भले ही इसने इन दवाओं की कीमतों को तय किया है, लेकिन उपलब्धता की कमी के चलते इन दवाओं की कालाबाजारी जारी है.
कालाबाजारी रोकने की सरकार ने अपनी जिम्मेदारी को समझने में देरी की है. यहां तक कि देश के कुछ हिस्सों में थर्मामीटर तक ब्लैक में बिक रहे हैं.
खैर, अब जो नुकसान हो चुका है उसकी भरपाई तो नहीं की जा सकती, लेकिन ये वक्त सबक लेने का है. मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने में वक्त लगेगा. लेकिन, कोविड से जुड़ी हुई आवश्यक चीजों की कीमतों में कमी लाकर सरकार एक तत्काल राहत तो आम लोगों को दे ही सकती है. साथ ही सरकार को कालाबाजारी करने वालों पर भी सख्ती से लगाम लगानी होगी.
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