7 दिसंबर 1941 को जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया और इसके साथ ही अमरीका भी दूसरे विश्व युद्ध में शामिल हो गया. जनवरी 1942 को अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने आदेश दिया कि शांतिकाल में दूसरी चीजें बना रही फैक्टरियों को भी युद्ध के लिए हथियार बनाने शुरू करने चाहिए. यह मुहिम तीन साल तक जारी रही.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद रूजवेल्ट से सबक लेना चाहिए. पीएम मोदी को देश की कुछ फार्मा कंपनियों को कोविड वैक्सीन बनाने के लिए लगा देना चाहिए. भारत में एक मजबूत फार्मा इंडस्ट्री है. देश की फार्मा कंपनियां दुनिया के तमाम देशों को दवाइयां निर्यात भी करती हैं. ऐसे में अगर कुछ फार्मा कंपनियां संकट की इस घड़ी में आगे आएं तो पर्याप्त संख्या में वैक्सीन बनाना कोई बड़ी चुनौती नहीं रह जाएगा. अगर इसे वैक्सीन राष्ट्रवाद भी कहा जाए तो इसमें बुराई नहीं है, लेकिन कम से कम जरूरत के वक्त देश को मुश्किल से बाहर तो निकाला जा सकेगा.
भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब किसी एक सेक्टर ने पूरे देश की तस्वीर को बदल दिया हो. 1980 के दशख तक न्यूयॉर्क में कैब ड्राइवर का मतलब था भारतीय मूल का व्यक्ति. गुजरे कई वर्षों से अब ये तस्वीर बदलकर आईटी सेक्टर के प्रोफेशनल्स की हो गई है. ऐसे में इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत का फार्मा सेक्टर इस वक्त की चुनौती से देश को बाहर निकाल सकता है.
जिस तरह से देश में कोविड की दूसरी लहर जिस तरह से फैल रही है उसमें इस वायरस के खिलाफ जंग की अभी बस शुरुआत ही हुई है. पिछले साल के लॉकडाउन और अर्थव्यवस्था को लगे झटके से देश अभी तक उबर नहीं पाया है.
सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक की बनाई जा रही वैक्सीन देश की आबादी के लिहाज से पर्याप्त नहीं हैं. 16 अप्रैल तक देश की केवल 1.1 फीसदी आबादी को ही वैक्सीन की दोनों डोज लगी हैं, जबकि 7.6 फीसदी लोगों को इसकी एक डोज लगी है.
विदेशी वैक्सीन्स को जल्दी एप्रूवल देने का सरकार का फैसला शायद बड़े पैमाने पर देश में वैक्सीन आने का रास्ता नहीं खोल पाएगा. इसकी वजह ये है कि इन मैन्युफैक्चरर्स को पहले अपने देश में वैक्सीन की जरूरतें पूरी करनी होंगी. ऐसे में वक्त तेजी से निकल रहा है और हालात भी उतनी तेजी से बिगड़ रहे हैं. सरकार को ऐसे में कुछ बड़े फैसले जल्द लेने होंगे.
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