वादा किया गया है कि इस बार का Budget अद्भुत और अद्वितिय होगा. अद्भुत और अद्वितिय जैसे भारी भरकम शब्दों का प्रयोग मैंने स्पेशल एफेक्ट के लिए ही किया है. अद्भुत का अनुमान लगाना तो मुश्किल है. लेकिन अपनी विशलिस्ट चिपकाने में तो कोई हर्ज नहीं है ना.
देश के हर लोगों की तरह मेरी भी इच्छा है कि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के लिए इनकम टैक्स में छूट दी जाए. ऐसा होगा क्या? पता नहीं. सबकी बलवती इच्छा है कि सरकारी खर्च बढ़े ताकि अर्थव्यवस्था को बूस्ट मिले. होगा क्या? कह नहीं सकते क्योंकि अद्भुत तो अकल्पनिय भी होता है ना.
मेरा मानना है कि छोटे-छोटे बदलाव से भी Budget को अनोखा बनाया जा सकता है. तीन बदलाव की तो बहुत जरूरत है- ट्रांसपरेंसी यानी पारदर्शिता, आउटकम ओरियेंटेशन यानी नतीजे का आकलन और क्लेरिटी यानी ऐलानों में स्पष्टता.
किस तरह की पारदर्शिता चाहिए उसका एक छोटा सा नमूना देखिए. Budget में आमदनी और खर्च का हिसाब होता है. लेकिन क्या हमें Budget पेपर्स में आमदनी और खर्च की सही तस्वीर मिलती है?
अब सबसे जरूरी सरकारी घाटे के आंकड़े को ही ले लीजिए. पिछले कई सालों से एक कैटेगरी रही है जिसे ऑफ बैलेंश शीट आईटम्स कहा जाता है. पहले इसमें ऑयल सब्सिडी को ट्रांसफर किया जाने लगा. फिर फूड और फर्टिलाइजर सब्सिडी. ऑफ बैलेंश शीट आईटम्स की हजारों करोड़ रूपए की अलग दुनिया है. ये सरकार की देनदारी है. लेकिन इसका हिसाब बजट में नहीं दिया जाता.
उसी तरह सरकारी आमदनी के एक मद को ले लीजिए. मुझे याद नहीं है कि डिसइनवेस्टमेंट का लक्ष्य जो बजट में रखा गया हो वो कभी पूरा हुआ हो. मसलन पिछले साल डिसइनवेस्टमेंट से दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा रकम जुटाने का ऐलान हुआ था. वित्त वर्ष खत्म होने में दो महीने ही बचे हैं और लक्ष्य का सिर्फ 10 परसेंट ही पूरा हो पाया है.
आमदनी और खर्च का सही आंकड़ा नहीं होगा तो कैसे पता चलेगा कि सरकार कितना कर्ज लेगी. वो ठीक से पता नहीं होगा तो हमें ब्याज दर की चाल का सही अंदाजा नहीं मिलेगा. सरकार कितना कर्ज लेती है वो ब्याज दर को काफी प्रभावित करता है.
ख्वाहिशों की लिस्ट का दूसरा आईटम है कि क्या ऐलान ऐसे होंगे जिसमें हमे पता चले कि इसका परिणाम क्या होगा. बजट में ऐलान होता है कि सोशल सेक्टर पर इतना खर्च होगा, ग्रामीण विकास के लिए इतने हजार करोड़ रुपए दिए जाएंगे. इससे बेहतर होता अगर यह पता चलता कि सरकारी खर्च से एक साल में कितने रोजगार पैदा होंगे, कितने लोग पढ़-लिख लेंगे, कितने हॉस्पिटल बेड जुड़ जाएंगे, कितने किलोमीटर सड़के बन जाएंगी, सरकारी दफ्तरों की क्षमता कितनी बढ़ जाएगी, एक्सपोर्ट कितना बढ़ जाएगा, मैन्यूफेक्चरिंग की क्षमता कितनी बढ़ेगी, किसानों-मजदूरों की आय में कितने परसेंट का इजाफा हो जाएगा.. इस तरह के आंकड़े मिलते हैं तो हमें पता चलेगा कि कहां ठोस काम हो रहा है.
लिस्ट का तीसरा आईटम है क्लेरिटी. इसको कुछ इस तरह से समझिए. आजकल आत्मनिर्भर शब्द का खूब चलन है. क्या इसका मतलब है इंपोर्ट को कम कर घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना? क्या इसका मतलब है ग्लोबल ट्रेड से मुंह मोड़ लेना? क्या इसका मतलब है विदेशी कंपनी को बाय-बाय और स्वदेशी को वाऊ कहना? इसमें बड़ा कंफ्यूजन है. क्या बजट में कंफ्यूजन दूर होगा?
ये छोटी-छोटी ख्वाहिशें ऐसी नहीं हैं कि मिर्जा गालिब की तरह हमें कहना पड़े कि हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
Disclaimer: कॉलम में व्यक्त किए गए विचार लेखक के हैं. लेख में दिए फैक्ट्स और विचार किसी भी तरह Money9.com के विचारों को नहीं दर्शाते.