ऐसे दौर में जबकि सेविंग्स अकाउंट्स और टर्म डिपॉजिट्स पर मिलने वाला ब्याज या तो इनफ्लेशन की दर से कम है या इसके बराबर है, स्मॉल फाइनेंस बैंक (SFB) जोखिम से बचने वाले लोगों के लिए एक बेहतर विकल्प मुहैया करा रहे हैं. सुरक्षित रेटिंग वाली कंपनियों के फिक्स्ड डिपॉजिट्स (FD) भी आकर्षक हैं, लेकिन, इनमें डिपॉजिट पर कोई इंश्योरेंस नहीं होता है. इसके अलावा, शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंक (SCB), SFB पर रिजर्व बैंक (RBI) की निगरानी रहती है. साथ ही अगर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बजट में किए गए अपने ऐलान को कानूनी शक्ल देती हैं तो बैंकों में जमा रकम 5 लाख रुपये तक की रकम इंश्योरेंस के तहत सुरक्षित होगी. देश में फिलहाल 10 SFB काम कर रहे हैं. इनमें से पहले दो 2016 में शुरू हुए थे, जबकि आखिरी बैंक ने 2018 में कामकाज शुरू किया है. इनमें से चार SFB 1 लाख रुपये के सेविंग अकाउंट बैलेंस पर 3.5 फीसदी ब्याज दे रहे हैं. जबकि 4 बैंक 4 फीसदी ब्याज ऑफर कर रहे हैं. एक बैंक न्यूनतम 5 फीसदी ब्याज दे रहा है. कुछ SFB में ब्याज दर स्लैब्स में बढ़ती है. इनमें से 7 बैंक 10 लाख रुपये और उससे ज्यादा के सेविंग अकाउंट डिपॉजिट पर 7 फीसदी ब्याज दे रहे हैं. 366 दिन के फिक्स्ड डिपॉजिट पर SFB 6-7 फीसदी तक ब्याज दर ऑफर कर रहे हैं. जबकि 9 बैंक सीनियर सिटीजंस को कम से कम आधा फीसदी ज्यादा ब्याज दर दे रहे हैं. इसके मुकाबले, HDFC बैंक 366 दिन के डिपॉजिट पर 4.90 फीसदी ब्याज दे रहा है, जबकि वरिष्ठ नागरिकों को 5.4 फीसदी ब्याज मिल रहा है. 50 लाख रुपये तक के सेविंग अकाउंट बैलेंस पर एचडीएफसी बैंक 3 फीसदी ब्याज देता है. दूसरी ओर, एसबीआई के मामले में ये दरें क्रमशः 5 फीसदी, 5.5 फीसदी और 2.7 फीसदी हैं. एक SFB को छोड़कर जो कि जालंधर की एक लोकल बैंक थी, बाकी सभी पहले माइक्रोफाइनेंस इंस्टीट्यूशंस (MFI) थीं. इन्हें डिपॉजिट लेने की इजाजत नहीं थी. ये MFI बैंकों से पैसे उधार लेती थीं और उसे बतौर कर्ज बांटती थीं. इसके बाद इन MFI ने खुद को SFB में तब्दील करना उचित समझा ताकि वे करेंट और सेविंग्स बैंक अकाउंट्स (CASA) और टर्म डिपॉजिट्स के तौर पर सस्ता फंड हासिल कर सकें. MFI के तौर पर इनके पास मध्य और निम्न आय वर्ग के कस्टमर्स का अच्छा-खासा बेस मौजूद है. बड़े सरकारी और निजी बैंकों को कामकाज शुरू करने के लिए 500 करोड़ रुपये की पूंजी की जरूरत पड़ती है, इसके उलट SFB के लिए यह जरूरत केवल 100 करोड़ रुपये की है. चूंकि, SFB लाइसेंस अब काफी हो गए हैं ऐसे में इनके लिए कैपिटल रिक्वायरमेंट को दोगुना बढ़ाकर 200 करोड़ रुपये कर दिया गया है. इसके अलावा, एक निश्चित सीमा पर पहुंचने के बाद इनके लिए पब्लिक होना भी जरूरी कर दिया गया है. परंपरागत बैंकों के उलट SFB के लिए अपने बांटे गए कर्जों का कम से कम 75 फीसदी हिस्सा प्राथमिकता वाले सेक्टर के लिए रखना जरूरी है. इस सेक्टर में छोटे किसान और कारोबारी, प्रवासी मजदूर और अन्य कम आमदनी वाले समूह आते हैं. दूसरे शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों के लिए यह अनिवार्यता 40 फीसदी है, साथ ही इनके 50 फीसदी लोन 25 लाख रुपये या उससे कम के होने चाहिए. इन बैंकों की जरूरत के बारे में 2009 में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की अगुवाई वाली कमेटी ने बात की थी. इनकी गाइडलाइंस 2014 में पब्लिश हुईं और इसके बाद लाइसेंस दिए गए. इसके पीछे मकसद फाइनेंशियल इनक्लूजन को बढ़ावा देना और ऐसे तबके को बैंकिंग की सेवा देना था जो कि बैंकिंग सेवाओं तक नहीं पहुंच पा रहे थे. इस वजह से इन बैंकों की कम से कम 25 फीसदी शाखाएं ऐसी जगहों पर खोले जाने की बात की गई है जहां पर या तो कोई बैंक नहीं है या फिर एकाध ही बैंक मौजूद है. आरबीआई के डिपार्टमेंट ऑफ सुपरविजन की रिचा सर्राफ और पल्लवी चाह्वाण के एक विश्लेषण में कहा गया है कि SFB तय की गई अनिवार्यता के मुताबिक चल रहे हैं. इन बैंकों ने प्राथमिकता वाले सेक्टर को तय आवश्यकता से ज्यादा ही कर्ज दिया है. इनके कुल क्रेडिट का 65 फीसदी हिस्सा एग्रीकल्चर, ट्रेड और प्रोफेशनल सर्विसेज को गया है. MSME को इन बैंकों ने कुल क्रेडिट का 40 फीसदी दिया है. जबकि दूसरे SCB के मामले में यह हिस्सेदारी 17 फीसदी ही है. इन बैंकों की फाइनेंशियल हेल्थ को लेकर चिंतित डिपॉजिटर्स यह जानकर खुश होंगे कि महामारी के पहले इन्होंने कम बैड लोन्स दिखाए क्योंकि इनका मैनेजमेंट बेहतर रहा और इनकी क्रेडिट पोर्टफोलियो की अच्छी निगरानी थी. इन बैंकों का नेट इंटरेस्ट मार्जिन (लिए गए ब्याज और चुकाए गए ब्याज के बीच अंतर) 8.34 फीसदी रहा है. यह पब्लिक सेक्टरों के मामले में 2.37 फीसदी और निजी बैंकों के लिए 3.42 फीसदी रहा है.
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