पशुओं के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन पेटा (PETA) ने अमूल को सलाह दी है कि उसे जानवरों के दूध की जगह गैर-पशु यानी प्लांट्स से दूध बनाना चाहिए. इस तरह के दूध में सोया मिल्क जैसे उत्पाद आते हैं. पेटा एक अमरीकी संगठन है. अमूल के काम में दखल देने वाे इस तरह के प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है.
भारत को दूध की कमी से दूध के सरप्लस वाले देश में तब्दील करने में अमूल की बड़ी भूमिका है. भाररत की श्वेत क्रांति का जन्म यहीं से हुआ है. अमूल को देश के सबसे सफल और मजबूत कारोबारी मॉडल्स में गिना जाता है. अमूल की वजह से देश के 1.2 करोड़ डेयरी किसानों के घर चलते हैं.
एक्टिविस्ट्स को अमूल के कामकाज में दखलअंदाजी से दूर रहना चाहिए.
डेयरी सेक्टर भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम है. 2017 में दूध और दुग्ध उत्पादों की हिस्सेदारी धान, गेहूं और दालों को मिलाकर भी 20.6% ज्यादा थी.
दुग्ध उत्पादन में देश की आत्मनिर्भरता के पीछे 7.3 करोड़ डेयरी किसानों की मेहनत है. इनमें खासतौर पर महिलाएं शामिल हैं जो कि आमतौर पर पशुओं की देखरेख में लगी होती हैं.
अमूल एक सहकारी मॉडल पर टिकी हुई है. इसका एक खास तरह का तीन-स्तरीय स्ट्रक्चर है जिसमें गांव, जिले और बाद में राज्य के स्तर आते हैं. सहकारी मॉडल का ऐसा बेहतरीन उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिलेगा.
दूध एक आवश्यक कमोडिटी है. शाकाहारी दूध की तरफ शिफ्ट होना फायदेमंद भी नहीं है, यह महंगा पड़ता है और ऐसे में आबादी के एक बड़े तबके के लिए दूध खरीदना मुश्किल हो जाएगा. साथ ही डेयरी वाला दूध ज्यादा पोषक होता है. प्लांट आधारित या सोया मिल्क उतना अच्छा नहीं होता.
सबसे बढ़कर भारत में दूध हर परिवार के खाने-पीने का एक अभिन्न हिस्सा है. न केवल पोषण के लिहाज से बल्कि यह सांस्कृतिक तौर पर भी महत्व रखता है.
पशुओं के दूध या अन्य उत्पादों का खाने-पीने में इस्तेमाल न करने का सिद्धांत पश्चिम से आया है और ये भारतीय खानपान की परंपरा में फिट नहीं बैठता है.
दूसरी ओर, भारत में कई लोग तो वीगन (दूध समेत किसी भी तरह का पशु उत्पाद इस्तेमाल न करना) और वेजीटेरियन में भी फर्क नहीं जानते होंगे.
भारत हमेशा से डेयरी और दुग्ध उत्पादों को पसंद करने वाला मुल्क रहा है. लाइफस्टाइल के तौर पर वीगनिज्म को अभी भारत में पैर जमाने की जगह नहीं मिली है.
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