लोकसभा चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स यानी चुनावी बॉन्ड योजना पर अहम फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने बॉन्ड्स को असंवैधानिक बताते हुए इस पर रोक लगा दी है. न्यायलय का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है. वोटर्स को पार्टियों की फंडिंग के बारे में जानने का हक है. ऐसे में कोर्ट ने बॉन्ड्स खरीदने वालों की सूची सार्वजनिक किए जाने के निर्देश दिए हैं. ऐसे में अब राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग की जानकारी सार्वजनिक करनी होगी.
अपने फैसले में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने आईटी अधिनियम और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन को खारिज कर दिया. ये चुनावी बॉन्ड्स के जरिए योगदान प्रदान करने के लिए बनाए गए थे. न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया. कोर्ट के मुताबिक ये गुमनाम चुनावी बॉन्ड्स सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है. CJI ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के अलावा भी काले धन को रोकने के दूसरे तरीके हैं. जनता को राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानकारी होनी चाहिए, इससे उन्हें अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने में आसानी होगी.
जानकारी साझा करने के लिए दिया 3 हफ्ते का वक्त
कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक दलों की फंडिंग के सिलसिले में एसबीआई को 12 अप्रैल 2019 से लेकर अब तक की जानकारी सार्वजानिक करने के निर्देश दिए हैं. एसबीआई को ये जानकारी चुनाव आयोग को देनी होगी. इसके बाद आयोग इस जानकारी को साझा करेगा. कोर्ट ने एसबीआई को ये जानकारी देनें के लिए तीन हफ्ते का वक्त दिया है.
क्या होते हैं इलेक्टोरल बॉन्ड्स?
बॉन्ड्स की शुरुआत 2 जनवारी, 2018 में हुई थी. इसे लाने का मकसद राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाना था. इसमें कोई भी व्यक्ति, कॉरपोरेट या संस्थाएं बॉन्ड खरीदकर राजनीतिक दलों को चंदा देती हैं. इस बॉन्ड को राजनीतिक दल बैंक में जमा करके रकम हासिल करते थे. भारतीय स्टेट बैंक की 29 शाखाओं को इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने और उसे भुनाने के लिए अधिकृत किया गया था. ये शाखाएं नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, गांधीनगर, चंडीगढ़, पटना, रांची, गुवाहाटी, भोपाल, जयपुर और बेंगलुरु की थीं. नियम के मुताबि 14 दिनों के अंदर अगर संबंधित पार्टी बॉन्ड को अपने रजिस्टर्ड बैंक खाते में जमा नहीं कर पाती है तो, बॉन्ड रद्द हो जाता था.