Money9 Edit: अर्थव्यवस्था की सेहत अभी नाजुक है. कोरोना की दूसरी लहर के मद्देनजर ये हैरानी वाली बात भी नहीं है. अर्थव्यवस्था की स्थिति दर्शाने वाले सभी सूचकांक चिंता ही दिखाते हैं – फैक्टरी उत्पादन कम हुआ है, गाड़ियों की बिक्री घटी है तो वहीं बेरोजगारी डबल डिजिट में है.
दो महीने तक कोविड-19 संक्रमण के लाखों मामलों और बढ़ती मृत्यु दर के बीच आर्थिक गतिविधियों का चक्का जाम हुआ और हेल्थकेयर इंफ्रा बड़े दबाव से गुजरा. ऐसे में आगे रिकवरी की राह कठिन होगी लेकिन तब भी इस सफर में नोट छपाई जैसे शॉर्टकट लेने से बचना होगा.
नए नोट छापने से छोटी अवधि में जो फायदा है वे उतना नहीं जितना इससे लंबी अवधि में नुकसान होगा. महंगाई 5.1 फीसदी रहने का अनुमान है. ऐसे में महामारी की मार से पहले से ही परेशान मध्यम वर्ग पर नए नोट छापने से दिक्कतें और बढ़ेंगी. महंगाई बढ़ेगी और रुपया कमजोर होगा, जिससे आयात करना और महंगा हो जाएगा.
रुपये का सर्कुलेशन बढ़ने से डॉलर के मुकाबले उसकी वैल्यू घटेगी. नोट छापने पर फैसला लेने का हक भारतीय रिजर्व बैंक का है. रिजर्व बैंक को कॉरपोरेट्स और दिग्गजों की इस सलाह को अनदेखा करना चाहिए. महंगाई को नियंत्रण में रखना रिजर्व बैंक का ही कर्तव्य है – चाहे किसी भी रणनीति के जरिए ये किया जाए.
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव बिल्कुल सही है कहते हैं कि भारत के पास अब भी घाटे की भरपाई के लिए कई अन्य तरीके हैं और नए नोट छापने का फैसला आखिरी होना चाहिए.
रिजर्व बैंक के मुताबिक भारत के पास कुल 598 अरब डॉलर का रिजर्व पड़ा है. इसमें से 553 अरब डॉलर फॉरेक्स रिजर्व है जिसे जरूरत के वक्त इस्तेमाल किया जा सकता है. सरकारी बॉन्ड जारी करना भी एक जरिया हो सकता है. लेकिन नोट छापना महंगा सौदा पड़ सकता है.