किसी भी निवेश पोर्टफोलियो को तैयार करने के लिए डायवर्सिफिकेशन और एसेट अलोकेशन का काफी महत्व होता है. कुछ निवेशक, इन्हें एक ही चीज मानते हैं. हालांकि दोनों का मकसद जोखिम को कम करना होता है फिर भी इन दोनों में कुछ अंतर हैं. हम आपको बता रहे हैं दोनों के बीच क्या होता है अंतर और आपके के लिए क्या होगा बेहतर.
लक्ष्य, निवेश की अवधि और आमदनी को ध्यान में रखते हुए पोर्टफोलियो में विभिन्न एसेट क्लास का हिस्सा बांटना एसेट अलोकेशन कहलाता है. इसके जरिए रिस्क को कम किया जाता है और रिटर्न को बढ़ाने की कोशिश की जाती है.
एसेट अलोकेशन के लिए कई बार हमारी इच्छाएं कुछ और होती हैं और जरूरतें कुछ और. इसलिए इस तरह की रणनीति अपनाई जाती है. आम तौर पर, शेयर, डेट और नकदी को मुख्य एसेट क्लास माना जाता है. इसके अलावा, रियल एस्टेट, सोना-चांदी के साथ-साथ आर्ट, क्वाइन आदि को भी इसमें शामिल किया जा सकता है.
उम्र के मुताबिक, एसेट अलोकेशन किया जाता है. मसलन, 30 साल की आयु वाले व्यक्ति के लिए यह अलग होगा और रिटायरमेंट के करीब पहुंचे व्यक्ति के लिए अलग. यह निवेशक की जरूरत और उसकी मौजूदा संपत्ति पर आधारित होता है.
मान लीजिए निवेशक ‘A,’ के पास एक ही शेयर है, जबकि निवेशक ‘B’ के पास 20 अलग-अलग शेयर हैं. कंपनी के मुनाफे में गिरावट की स्थिति में निवेशक ‘A’ के पोर्टफोलियो पर बुरा असर पड़ सकता है. इसलिए रिस्क को कम करने के लिए डायवर्सिफिकेशन किया जाता है. दूसरी ओर, निवेशक ‘B’ को किसी एक कंपनी से हुई समस्या से कम असर पड़ेगा, क्योंकि उसके पास 20 कंपनियों के शेयर हैं.
हालांकि यदि पूरे मार्केट में गिरावट (मार्केट रिस्क) आती है तो डायवर्सिफिकेशन के जरिए जोखिम को दूर नहीं किया जा सकता. इस स्थिति में 20-30 शेयरों पर भी निवेश करने का कोई फायदा नहीं होता. यदि आप म्यूचुअल फंड के जरिए निवेश कर रहे हैं तो, हरेक एसेट क्लास के हिसाब से 4-5 फंडों पर निवेश करना चाहिए. आप लॉर्ज कैप और मिडकैप फंड को मिलाकर निवेश कर सकते हैं. हालांकि आपके निवेश में आपकी आयु, लक्ष्य और क्षमता का काफी महत्व रहता है.
इसके अलावा, डायवर्सिफिकेशन एक निश्चित सीमा तक प्रभावशाली होता है. यदि आप कई शेयर या फंड में निवेश कर रहे हैं और ग्रोथ बहुत अच्छी नहीं है तो पोर्टफोलियो की गुणवत्ता पर असर पड़ता है.