शारीरिक और मानसिक सेहत के बीच संतुलन बनाये रखते हुए एक अच्छी जिंदगी जीना हर किसी का मौलिक अधिकार है. हालांकि, तेज-रफ्तार जिंदगी और महामारी के बिगड़ते हालात से मानसिक परेशानियां बढ़ रही हैं. खासकर लंबी बीमारियों की वजह से होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं, नौकरी में कटौती, वेतन में कटौती, वायरस के खतरे की वजह से बढ़ती घबराहट, नींद की समस्या, आदि वजहों से ऐसा हो रहा है. 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 90 मिलियन से अधिक भारतीयों के मानसिक परेशानियों से ग्रसित होने के बावजूद भी हम अब भी मानसिक सेहत और परेशानियों से जुड़ी सामाजिक रूढ़ियां पाते हैं.
आरंभिक लक्षणों को अनदेखा करने से ज्यादातर मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बिगड़ जाती हैं. मानसिक बीमारी के कुछ सांकेतिक लक्षण इस प्रकार हैं- खानपान की असामान्य आदतें, अनिद्रा, थकान, अलग-थलग होना, संवेदना की कमी, असहाय महसूस करना, मादक द्रव्यों का सेवन, मूड का बार-बार बदलना, चिड़चिड़ापन, आत्महत्या के विचार, रोजमर्रा के कामों को करने में परेशानी महसूस होना.
यदि इनमें से कोई भी लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं तो उन पर नजर रखना और डॉक्टर से सलाह लेना जरूरी है. एक बार शारीरिक और मनोवैज्ञानिक मूल्यांकनों के माध्यम से मानसिक परेशानियों का सही तरीके से पता चल जाये और बीमारी के प्रकार और उसकी गंभीरता का पता चल जाये तो जल्द से जल्द उसका इलाज किया जा सकता है. इलाज का तरीका अलग-अलग हो सकता है, चाहे वह साइकोथैरेपी के रूप में हो, दवाओं, वैकल्पिक चिकित्सा या फिर इन सबका मिश्रित रूप हो. इन सारे ही चरणों में लगातार देखभाल के साथ-साथ सही मार्गदर्शन से जरूर मदद मिलेगी.
यह मानना जरूरी है कि हम सभी अलग इंसान हैं, इसलिये एक इंसान के लिये जो चीज असरदार है, हो सकता है वह दूसरे लिये काम ना करे. ऐसे में सही निदान के लिये उचित चिकित्सकीय परामर्श लेना और उपचार के सही तरीकों का पालन करना जरूरी है.
मानसिक सेहत सितंबर, 2020 तक ज्यादातर नियमित इंडेमनिटी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के तहत कवर नहीं होती थी. हाल ही में विनामकीय बदलावों के साथ स्वास्थ्य बीमा का दायरा विस्तृत हो गया है. सभी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं बेहतर हो गईं हैं और इनमें मानसिक सेहत के लिये कवरेज जोड़ा गया है.
लंबे समय तक भारत में स्वास्थ्य बीमा पॉलिसीज, मानसिक बीमारियों को कवर नहीं करती थीं. लेकिन किस्मत से, अब हम इस चलन में बदलाव देख रहे हैं. पहले सभी स्वास्थ्य बीमा कंपनियां केवल शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं और परेशानियों को कवर करती थीं.
लेकिन अब, कुछ मनोवैज्ञानिक परेशानियों को भी कवर करने लगी हैं. यदि हम मानसिक बीमारियों की परिभाषा के अनुसार चलते हैं तो उनमें से दो अपवाद हैं. सबसे पहला तो ये पॉलिसीज मानसिक मंदता (रिटार्डेशन) को कवर नहीं करतीं. दूसरी ड्रग्स या शराब की वजह से होने वाले दुष्परिणामों को भी इससे अलग रखा गया है. इसके साथ ही आईआरडीएआई ने बीमाकर्ताओं को उन बीमाधारकों को स्वास्थ्य बीमा कवरेज देने से इनकार करने से मना किया है, जिन्होंने पहले एंटीडिप्रेसेंट या ओपिओइड का इस्तेमाल किया हो.
जब मानसिक बीमारी के कवरेज को परख रहे हों तो सबसे पहले यह देखना सही होगा कि उस बीमारी में अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत है या फिर उसका इलाज थैरेपी और दवाओं से किया जा सकता है. पहली स्थिति में, एक व्यापक इंडेमनिटी (क्षतिपूर्ति) योजना, जिसमें भर्ती होना पडता है, लेने की सलाह दी जाती है.
वहीं दूसरे में एक ऐसी योजना होगी जिसमें ओपीडी शामिल है. उदाहरण के लिये, एसबीआई द्वारा पेश की गई ज्यादातर स्वास्थ्य बीमा योजनाओं को मानसिक बीमारियों के कवरेज को शामिल करने के लिये उसे बेहतर बनाया गया है.
एक ऐसा कवर चुनने की सलाह दी जाती है, भले ही वह थैरेपी या परामर्श के लिये हो, क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का अलग से इलाज कराने का खर्च, चाहे उसकी गंभीरता कुछ भी हो, काफी महंगा होता है.
हर कोई इसे वहन नहीं कर सकता है. इसलिये, एक स्वास्थ्य बीमा कंपनी का चयन करते समय, यह महत्वपूर्ण है कि वह ऐसी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं को चुनें, जिसमें मानसिक समस्याओं संबंधी पर्याप्त कवरेज हो और उससे संबंधित खर्च उसके अंतर्गत आता हो.
(यह लेख एसबीआई जनरल इंश्योरेंस के रिइन्श्योरेंस और प्रोडक्ट डेवलपमेंट के हेड सुब्रह्मण्यम ब्रह्माजॉयसुला द्वारा लिखा गया है.)
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