गंभीर बीमारियों के इलाज या आकस्किम खर्चों की भरपाई के लिए लोग स्वास्थ्य बीमा लेते हैं. मगर हकीकत में उन्हें बीमा का क्लेम लेने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. लोकल सर्कल्स के एक हालिया सर्वे में पता चला कि करीब 43 फीसद स्वास्थ्य बीमा पॉलिसीधारकों को क्लेम लेने में संघर्ष करना पड़ा है. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में देश में कई स्वास्थ्य बीमा दावों को या तो रिजेक्ट कर दिया गया है या आंशिक रूप से स्वीकृत किया गया है.
यह सर्वे भारत के 302 जिलों के 39,000 लोगों से इनपुट लेने के बाद तैयार किया गया है. जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि बीते तीन वर्षों में कई पॉलिसीधारकों को स्वास्थ्य बीमा क्लेम लेने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा. इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख तौर पर पॉलिसियों में दावों के लिए पात्रता आदि के बारे में पूरी जानकारी का न होना, तकनीकी शब्दजाल और जटिल शब्दों के उपयोग के कारण कॉन्ट्रैक्ट में अस्पष्टता, पहले से मौजूद बीमारी के कारण दावों का खारिज किया जाना आदि शामिल है.
प्रोसेसिंग में लग रहा ज्यादा वक्त
सर्वे में पॉलिसीधारकों ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि स्वास्थ्य बीमा कंपनियां दावों को देरी से प्रोसेस कर रही हैं. जिसकी वजह से अस्पताल से छुट्टी मिलने में देरी हो रही है. कई मामलों में मरीज को डिस्चार्ज के लिए तैयार होने के बाद भी 10-12 घंटों का इंतजार करना पड़ा. अगर वे एक अतिरिक्त रात रुकते हैं तो मरीज को एक्स्ट्रा खर्च उठाना पड़ता. कई बीमाधारकों के अनुसार यह समस्या उन अस्पतालों में भी देखने को मिली जहां बीमा कंपनी ने प्रवेश से पहले ही अस्पताल के टीपीए डेस्क को प्री-एप्रूवल दे रखे हैं.
पॉलिसीधारकों की बीमा नियामक से मांग
सर्वे में शामिल लोगों की राय है कि भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) बीमा कंपनियों को हर महीने कुछ विवरण प्रकाशित करने के लिए बाध्य करे. जिससे बीमा क्लेम प्रोसेस में हो रही देरी दूर हो सके. सर्वे में मौजूद 93% उत्तरदाताओं ने कहा कि वे आईआरडीएआई के उस नियम के पक्ष में हैं जिसमें बीमा कंपनियों के लिए प्राप्त अस्वीकृत दावों के विवरण और एप्रूव्ड नीतियों और रद्द की गई नीतियों के बारे में डेटा का खुलासा करना अनिवार्य करने को कहा गया है. इससे पारदर्शिता बढ़ेगी और बीमा कंपनियां मनमाने ढंग से पॉलिसियों को रद्द नहीं कर पाएंगी.
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