आर्थिक रूप से लगातार पतन की राह पर चलने के मामले में पश्चिम बंगाल एक मिसाल है. आजादी के वक्त पर ये औद्योगिक रूप से सबसे ज्यादा अग्रणी राज्य था और यहां बेहतरीन रेल-रोड कनेक्टिविटी, पानी, बिजली और स्किल्ड ह्यूमन रिसोर्स की इफरात थी. इंजीनियरिंग, चाय, जूट, स्टील और मिनरल्स जैसे सेक्टरों में बड़ी कंपनियां यहां मौजूद थीं. ये प्रतिस्पर्धी फायदे राज्य से कभी दूर नहीं हुए, लेकिन कई वजहों से राज्य निवेशकों की नजर से उतरता चला गया. इनमें उग्र ट्रेड यूनियनवाद और उद्योग विरोधी कदम रहे. मिसाल के तौर पर टाटा का सिंगूर में कारखाना नहीं लग सका और इन चिंताओं के चलते निवेशकों ने राज्य से दूरी बना ली. राज्य सरकार का इंफोसिस और TCS को SEZ का दर्जा देने से इनकार करना भी इसकी इमेज के लिए प्रतिकूल साबित हुआ.
एक तरफ जहां बंगाल गिरावट का शिकार हो रहा था, वहीं दूसरी ओर कई दूसरे राज्य कारोबारियों को सहूलियत देने के लिहाज से तेजी से ऊपर चढ़ रहे थे. जिन राज्यों को कभी पिछड़ा माना जाता था उन्होंने तेजी से प्रगति की, जबकि बंगाल नौकरियों की जद्दोजहद से जूझ रहा है. राज्य के शिक्षित युवाओं ने सूबा छोड़ दिया और दूसरी जगहों पर जाकर नौकरियां करने लगे.
सोमवार को बंगाल के इंडस्ट्री मिनिस्टर ने कहा कि टाटा का बंगाल में निवेश के लिए स्वागत है. 10 साल पहले ऐसा ही न्योता ममता बनर्जी ने भी दिया था. उनकी सरकार को तेजी से निवेशकों का भरोसा हासिल करना होगा.
ममता बनर्जी को तुरंत कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स लॉन्च करने होंगे और अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी. गुजरे 25 से ज्यादा वर्षों से बंगाल एक परसेप्शन की मुश्किल से गुजर रहा है. यहां तक कि वामपंथी ज्योति बसु ने भी 1994 में नई औद्योगिक नीति को स्वीकार किया और निजी सेक्टर की अहमियत को स्वीकारा. ममता बनर्जी तभी कुछ अच्छा कर सकती हैं जबकि वे इस इमेज से जुड़ी समस्या को दूर कर सकें.
औद्योगिकीकरण ही आगे का रास्ता है. राज्य को फ्री के झुनझुने पकड़ाने की नीति को छोड़ना होगा और बड़ी तादाद में नौकरियां पैदा करनी होंगी. इसके लिए इंडस्ट्री लगानी जरूरी है. इससे राज्य का रेवेन्यू भी बढ़ेगा. सत्ताधारी पार्टी को इंडस्ट्री के लिए जमीन अधिग्रहण पर रोक लगाने वाली नीति पर भी विचार करना होगा. इनवेस्टमेंट का कोई भी फैसला तभी हो सकेगा जबकि निवेशकों का भरोसा कायम हो.