कच्चे तेल में उबाल आ रहा है और उबाल जारी रहने के ही आसार है. आशंका है कि यह महंगाई (Inflation) को अपना सिर उठाने के लिए ईंधन मुहैया कराएगी. यहां से दूसरी चिंता भी शुरू होगी और वह है कर्ज पर ब्याज दर. 2 अक्टूबर को खत्म हो रहे सप्ताह के दौरान पेट्रोल के दाम चार बार और डीजल के दाम छह बार बढ़ाए गए. वजह तीन साल में पहली बार अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव 80 डॉलर प्रति बैरल के करीब पहुंच गए. नतीजा 24 सितम्बर से लेकर 2 अक्टूबर के बीच डीजल की कीमत 1.85 रुपये और पेट्रोल की कीमत 1 रुपये बढ़ चुकी है.
दूसरी ओर सुर्खियों वाली खुदरा महंगाई दर में भले ही जुलाई और अगस्त में कमी देखी गयी हो, लेकिन इसमें शामिल अगर ‘Fuel and Light’ समूह की महंगाई दर को देखा जाए मार्च से जो इसमें बढ़ोतरी शुरू हुई, वह लगातार जारी है और अब यह 13 फीसदी के करीब पहुंच चुकी है. गांवों में भले ही यह दर कमोबेश स्थिर है, लकिन शहरों में इसके बढ़ोतरी की रफ्तार ज्यादा ही तेज है. ध्यान रहे कि पूरे खुदरा महंगाई दर में ‘Fuel and Light’ समूह का भारिता करीब आठ फीसदी है. अब यह भारिता भले ही एक अंक में दिखता हो, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप में असर कई गुना ज्यादा है.
इसे यूं समझिए सामान लाने—ले जाने की लागत में एक बड़ा हिस्सा ईंधन का होता है. अब ईंधन के दाम बढ़ते है तो लागत बढ़ेगी और अंत में ग्राहक को ज्यादा कीमत चुकानी होगी. दूसरी ओर इसका असर पूरी महगाई दर पर देखने को मिलेगी. यही वजह है कि ईंधन प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों ही रूप में महंगाई को प्रभावित करती है.
अब यहां गौर वाली एक और बात है और वो यह कि दुनिया के कुछ देशों में जाड़ा आने वाला है जबकि कुछ देशों में यह और बढ़ेगा. इसी के साथ ईंधन की मांग बढ़ेगी. वहीं दूसरी ओर आपूर्ति उस हिसाब से बढ़ने की उम्मीद नहीं दिखती. मतलब साफ है कि महंगाई के अनुमान में से किसी तरह का राहत की आस नहीं दिखती. यह भी वो तथ्य है जिसने चिंता बढ़ा रखी है.
इन सब के बीच 3 अक्टूबर से शुरू होने वाले सप्ताह के दौरान रिजर्व बैंक गवर्नर की अगुवाई वाली मौद्रिक समिति की बैठक होने वाली है. उम्मीद है कि बैठक में महंगाई की न केवल मौजूदा स्थिति बल्कि महंगाई के अनुमानों पर विस्तार से चर्चा होगी और उसके परिपेक्ष्य में विकास की जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए रेपो रेट ( जिस दर पर रिजर्व बैंक थोड़े समय के लिए बैंको को नकदी मुहैया कराता है) और रिवर्स रेपो रेट ( जिस दर पर बैंक, रिजर्व बैंक के पास अपनी अतिरिक्त नकदी रखते हैं) की समीक्षा की जाएगी.
वैसे तो इस बात पर सहमति है कि रेपो रेट में किसी तरह के बदलाव के आसार नहीं, लेकिन रिवर्स रेपो रेट बढ़ाए जाने के कयास लगाए जाने लगे हैं. मतलब यह हुआ है कि बैंकों को अपनी ज्यादा से ज्यादा अतिरिक्त नकदी रिजर्व बैंक के पास रखना फायदेमंद लगेगा. इससे बाजार में नकदी में कमी आएगी और अंत में जिसका असर ब्याज दर पर देखने को मिलेगा. महंगाई पर लगाम लगाने का यह अप्रत्यक्ष तरीका है.
यहां एक और बात ध्यान देना बेहतर होगा. सरकार ने 12 किस्म की छोटी बचत योजनाएं (पब्लिक प्रॉविडेंट फंड, नेशनल सेविग्स सर्टिफिकेट, डाक घर की बचत योजनाएं, सुकन्या समृर्द्धि योजना और किसान विकास पत्र वगैरह) पर अक्टूबर-दिसम्बर तिमाही के लिए ब्याज दर में कोई बदलाव नहीं किया है. अब इस स्थिति से मुकाबला करने के लिए बैंकों के पास विकल्प यह है कि वो जमा पर ब्याज दर बढ़ाए, लेकिन यह आसान नहीं, क्योंकि कर्ज पर अभी ब्याज दर कम है। अब ऐसा हो नहीं सकता है कि बैंक महंगा जमा जुटाएं और सस्ता कर्ज दें. कर्ज सस्ता करने के लिए जमा सस्ता करना भी फायदे का सौदा नहीं होगा.
भारतीय स्टेट बैंक की एक रपट बताती है कि देश में करीब 207 करोड़ जमा खाता (बचत, चालू और मियादी- तीनों मिलाकर) जबकि कर्ज के खाते की संख्या 27 करोड़ है. रकम के लिहाज से देखे तो कुल जमा रकम करीब 151 लाख करोड़ रुपये की बनती है, वहीं कर्ज की रकम 110 लाख करोड़ रुपये की है. कुल जमा रकम का करीब 44 फीसदी, बचत खाता और चालू खाते के जरिए आता है जिसमें से एक पर ब्याज दर कम है, जबकि दूसरे पर बिल्कुल नहीं. मतलब बैंक के लिए जमा की लागत को कम रखने में कुछ तो मदद मिल रही है, लेकिन ब्याज दर बढ़ाने पर ऐसी मदद मुश्किल हो जाएगी.
दुविधा की स्थिति बढ़ती जा रही है. रिजर्व बैंक की प्रस्तावना यह साफ कहती है कि केंद्रीय बैंक को महंगाई पर लगाम के लिए कदम उठाने होंगे. दूसरी ओर विकास की जरूरत याद दिला रही है कि ब्याज दर नहीं बढे. इनके बीच संतुलन बनाना बेहद चुनौतियों का काम है.