मनी9 ने पिछले साल किए अपने पर्सनल फाइनेंस सर्वे में देश के 31000 परिवारों से पूछा कि वह हर महीने अपनी मासिक कमाई का कितना हिस्सा बचा पाते हैं? जवाब आया कि करीब 50 फीसदी परिवारों के पास उनकी मासिक आय की दस फीसदी से कम बचत है. सनद रहे कि यह भारत का सबसे बडा ताजा पर्सनल फाइनेंस सर्वे है. हमने यह सवाल इसलिए पूछा क्यों कि हमें याद था कि कोविड लॉकडाउन के दौरान हजारों लोग शहरों से पैदल अपने गांव घरों की तरफ निकल पड़े थे. रेाजगार टूटने पर उनके पास पंद्रह दिन तक काम चलाने के लिए बचत नहीं थी.
जो सवाल हमने लोगों से पूछा उसे सरकार को भी पूछना चाहिए. आप कहेंगे हमारे पास पर्याप्त बचत है या नहीं इससे सरकार को क्या फर्क पड़ता है. साहब सिर्फ फर्क नहीं पहाड़ सा फर्क पड़ता है. हमारी बचत न हो सरकारें कंगाल हुई खड़ी हैं. हमारी हजार पांच सौ जो बैंकों बीमा में लगे हैं वही कर्ज बनकर सरकार को मिलता है तब कई राज्यों में तनख्वाहें बटती हैं. हम आप भारी टैक्स को रोते हैं मगर वह तो सरकारी खर्चों के तपते तवे पानी की छींट है. बचत हमारे लिए जरुरी है लेकिन हमें बचाने के मौके और प्रोत्साहन देना सरकार की मजबूरी है. हमें यह फार्मूला समझने के लिए कुछ आगे तक जाना होगा.
बचत तो जरुरी है
जब से हमें जीडीपी की चटनी चटाई गई है और मांग की माला पहनाई गई, हमारे आर्थिक आकलन खपत के आंकड़ों को पीसते हैं और उन्हीं से तरक्की चीन्हते हैं. मसलन वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही में, बीते साल की इसी अवधि मुकाबले में महंगाई मिलाकर खपत 40 फीसदी की बढत दिखाई. लेकिन महंगाई अलग करने के बाद यह बढत केवल 26 फीसदी रहती है. इसका मतबल है कि लोगों का खर्च मांग के कारण नहीं महंगाई के कारण बढा. इसका सीधा मतलब है कि बचत में कमी हुई है. अर्थशास्त्र के नियम कहते हैं कि जब ग्रोथ की रोटी गोल न बने तो बचत को भी देखना चाहिए क्यों कि यह भी देश की आर्थिक प्रगति का उतना ही जरुरी हिस्सा है जितना निवेश और खर्च. कर्ज महंगा होने, आर्थिक विकास दर टूटने और महंगाई की स्थिति मे आम परिवारों की बचत को करीब से देखना और भी जरुरी हो जाता है.
कितना बचाता है भारत ?
2020-21 में परिवारों की बचत जीडीपी के अनुपात में 11.5 फीसदी पर पहुंच गई. लोग घरों में बंद थे. खपत नहीं थी जो कमाई बचतों की गुल्लक में रखी गई. 2021-22 के साल में लॉकडाउन खत्म हुए. वित्तीय बचत टूट कर 7.2 फीसदी पर आ गई. और 2022-23 में तो यह घटकर सिर्फ 5.1 फीसद बची है, यानी 2023 की बचत जीडीपी के अनुपात में कोविड से पहले के साल 2020 से भी कम है. इस कहानी का सबक यह है कि कोविड के बाद कमाई नहीं बढ़ी जिससे के बचतें बढ पातीं. लोगों से बचत तोड़ कर खर्च किया क्यों महंगाई बढ़ गई थी.
बचत के भीतर क्या है?
रिजर्व बैंक ने हाल में बचत के आंकडे दिये हैं. संख्यायें पर्तदार हैं. महामारी के बाद भारतीय परिवारों की बचत का तौर तरीका बदला है. जिसके गहरे मतलब हैं. कुल वित्तीय बचतों में जमा यानी डिपॉजिट का हिस्सा तेजी से टूटा है. 2020 में यह हिस्सा 36.7 फीसदी था अब 2022 में 27.2 फीसदी रह गया है. डिपॉजिट में बैंक जमा, सहकारी बैंक डिपॉजिट, गैर बैंक डिपॉजिट आते हैं. यह आंकड़ा ब्याज दर बढ़ने के ताजे दौर से पहले का है. जैसे ही लॉकडाउन खुले लोगों ने खर्च की जरुरत के कारण बचत निकाल लीं. उस दौरान बचत कोई खास रिटर्न नहीं था इसलिए बैंक में बैठे रहने का मतलब भी नहीं था. इसलिए बीते छह माह में बेंकों के जमा जुटाने की होड़ लगी है. कर्ज की महंगाई के साथ डिपॉजिट पर ब्याज दर बढ़ रही है अलबत्ता रोशन हुए चराग तो आंखे नहीं रहीं. अब कमाई ही नहीं बची जो बैंकों में जमा की जा सके.
बैंक बचतों का सबसे चौंकाना वाला पहलू यह है कि सहकारी बैंक में जमा बुरी तरह घटी है. यह दरवाजा अब बंद हो रहा है. रिजर्व बैंक की सख्ती के बाद सहकारी बैंक आखिरी सांसे गिन रहे हैं. यहा 2020 में 58000 करोड़ की बचत थी 2022 में घटकर दो हजार करोड़ रुपये रह गई.
बीमा तस्वीर पूरी तरह उलटी है. कोविड की मौतों के कारण बीमा की मांग बढ़ी तो बचतों में बीमा का हिस्सा 2020 में 15.5 से बढ़कर 2022 में 17.8 हो गया. मनी 9 के सर्वे भी ने भी पाया कि परिवारों की बचत में बीमा हिस्सा करीब 19 फीसदी है जो सोने में बचत से ज्यादा है. बीमा के साथ प्रॉविडेंट फंड और पेंशन फंड में भी निवेश बढ़ा है.
सबसे रोचक रिपोर्ट छोटी बचत स्कीमों की है. 2020 के मुकाबले 2022 में यहां रिटर्न घटे लेकिन वित्तीय बचतों में इनका हिस्सा करीब दो फीसदी बढ़ा है. शेयर बाजारो में तेजी का नतीजा है कि वित्तीय बचतों में म्युचुअल फंड का हिस्सा 2020 के 2.6 फीसदी से 2022 में 6.3 फीसदी हो गया. करीब तीन गुना बढ़त. मनी 9 सर्वे में भी यह जानकारी सामने आई थी. बचत के हिस्से के तौर पर शेयर यानी इक्विटी में निवेश 0.8 फीसदी बढ़ा है मगर उतना नहीं जितनी फंड म्युचुअल फंड ने बटोरा है. एसआईपी क्रांति सफल रही है.
बचत के प्रतिशतीय आंकड़ों से अलग असली तस्वीर पर सरकार को बड़ी फिक्र होनी चाहिए. 2020 में कुल बचतें 24 लाख करोड़ रुपये थीं जो 2022 कें केवल 25.60 लाख करोड़ रुपये हो पाई हैं. डिपॉजिट तो 8.27 लाख करोड़ से घटकर 6.53 लाख करोड रह गए हैं. म्युचुअल फंड के लिए रुझान तो बढा है लेकिन अधिकांश आबादी के पास इनकी समझ नहीं और न ही अतिरिक्त निवेश के लायक बचत. म्युचुअल फंड में कुल बचत 2022 में केवल 1.60 लाख करोड है
बचत का आइना इधर है
बचतों को अकेले देखना समझ को भ्रमित कर सकता है. बचतों को देनदारियों की रोशनी में देखा जाता है. रिजर्व बैंक परिवारों के वित्तीय रिपोर्ट कार्ड में कुल बचतों के साथ कुल देनदारियों का ब्योरा देता है. ताजा आंकड़ा बताता है कि एक तरफ बचतें गिरी हैं तो दूसरी तरफ परिवारों का समग्र कर्ज 2021-22 में छह लाख करोड़ रुपये बढकर 83.65 लाख करोड़ रुपये हो गया. हालांकि जीडीपी के अनुपात में परिवारों पर कर्ज कम हुआ लेकिन कर्ज का आंकडा बता रहा है कोविड के बाद लोगों को जरुरी खर्च के लिए कर्ज लेना पड़ा है क्येां बचतों भी कम पड़ रही थीं
इस तथ्य की रोशनी में महंगे ब्याज पर कर्ज की मांग बढ़ने का ताजा रुख बड़ी चिंता पैदा करता है. बीते छह माह में कर्ज की मांग में दस साल कीसबसे तेज बढ़त दिखी है लेकिन इसमें अधिकांश खुदरा कर्ज है. मनी 9 सर्वे ने बताया है कि भारत में कर्ज में इस वक्त सबसे बड़ा हिस्सा पर्सनल लोन का है. यानी लोग मकान कार या पढ़ाई के लिए नहीं रोजमर्रा के खर्च के लिए कर्ज ले रहे हैं.
क्यों हमें बचत की फिक्र होनी चाहिए
देश की बचत दर का सीधा रिश्ता के उसके निवेश से होता है. ओईसीडी यानी विकसित देशों से बाहर दुनिया के 62 देशों का अध्ययन बताता है कि 1960 से 2011 के बीच जहां बचत दर ऊंची है वहां निवेश की दर ज्यादा होती है क्यों निवेश के संसाधनों की कमी नहीं होती. कुछ नए अध्ययनों ने यह भी पाया कि किसी देश में विकास दर और बचत का रिशता, निवेश और बचत के रिश्ते से भी करीबी होता है. सनद रहे अच्छी घरेलू बचत विदेशी निवेशकों भरोसा बढ़ाती है. जिन अर्थव्यवस्थाओं में यह बचत दर ऊंची है वहां विदेशी निवेश भी ज्यादा है क्यों कि पूंजी की सुरक्षा पर खतरे कम से कम हैं.
भारत की सकल घरेलू बचत जो 2007-08 में 36 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) थी वह 2022 में 28 फीसदी पर आ गई. 2003 से 2008 के बीच भारत में जीडीपी के अनुपात में निवेश 30 फीसदी से बढ़कर 34.7 फीसदी हो गया था वह 2022 में घटकर 33 फीसदी रह गया.
चीन और पूर्वी एशिया के अन्य देशों की बचत,उनके जीडीपी के साथ लगातार बढ़ती रही है. 2017 में चीन की बचत दर जीडीपी की 47 फीसदी और दक्षिण कोरिया की 36 फीसदी है. कमजोर बचत दर के साथ भारत के लिए चीन को पछाड़ पाना अगले कई दशकों तक असंभव रहने वाला है. भारत मंदी से उबरने ( 2020-21 की निगेटिव ग्रोथ से निकलने के बाद) के लिए अगले एक दशक तक हर साल करीब नौ फीसदी की विकास दर चाहिए. मेकेंजी के एक ताजा अनुमान के अनुसार इसे हासिल करने के लिए 2030 तक 2.4 ट्रिलियन डॉलर निवेश की जरुरत होगी यानी कि जीडीपी के अनुपात में 37 फीसदी (2020 में केवल 33 फीसदी) की निवेश की दर.
सबसे बड़ा जोखिम
जीडीपी के अनुपात में बचत के आकंड़े भीतर का बड़ा जोखिम छिपा है. किसी अर्थव्यवस्था में बचत की वास्तविक गणना शुद्ध बचत पर केंद्रित होती है यानी वह बचत तो कर्ज के अलावा है. अर्थव्यवस्था में काम की बचत वही है जो कर्ज का भुगतान निकाल कर शेष रहती है. और इसे सरकारों के कुल घाटे के अनुपात में देखा जाता है क्यों यही बचत सरकारों के काम आती है जिसे वह कर्ज के तौर पर बैंकों से लेते हैं.
2021-22 आम लोगों की शुद्ध बचत ( कर्ज निकाल कर) जीडीपी की केवल 8.2 फीसदी है जबकि 2022-23 में भारत का समग्र राजकोषीय घाटा 10 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) के बीच रहने के आकलन हैं. राजकोषीय घाटा सरकार के कुल कर्ज का पैमाना है. यानी देश के परिवार जितना बचा रहा है उससे अधिक तो अकेले सरकार को कर्ज लेना होगा. विदेशी निवेश जीडीपी का 2.4% हैं. इसके मिलाने के बाद अर्थव्यवस्था जितने संसाधन बनते हैं वह सरकारों की कर्ज जरुरत के बराबर हैं. उद्योगों, परिवारों, सरकारी कंपनियों आदि को कर्ज के लिए तो नोट छापने होंगे या विदेशी से कर्ज लेना होगा. सिद्धांत यह बताते हैं कि अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिए देश की बचत दर निवेश की दर से ज्यादा होनी चाहिए !!! कि कारोबारी गलत फैसले लेते हैं, कंपनियां डूबती हैं, मंदी के कारण कारोबार ठप होते हैं जिससे पूंजी डूब जाती है. इसलिए अर्थव्यवस्थाओं को हिफाजती (Precautionary Savings) बचत चाहिए.
तो करें क्या ?
भारत में सरकार की छाया में वित्तीय बचतों का तौर तरीका अंग्रेज लेकर आए. उनके लिए भी बचतें कोई पुरानी बात नहीं थी. 17 वीं सदी में यूरोप में खेती और औद्योगिक क्रांति के बाद भी गरीबी बढ़ती गई. बाजार में बचत कर्ज जमा की निजी दुकानें खुल गई. यानी पॅानशाप्स. इनकी छाया में सेविग्स बैंक शुरु हुए. शुरुआत जर्मनी आस्ट्रिया से हुई इन्हें स्पार्कसेन कहा जाता था. स्थानीय सरकारें अपनी गारंटी पर लोगों को बचत के प्रोत्साहित करती थीं.यूरोप में सेविंग्स बैंक कानून इसी का नतीजा था. 19 वीं सदी में कई देशों में इस तरह के कानून बनाये गए. इसी दौरान 1873 में भारत कें सरकारी सेविंग्स बैंक एक्ट बना और कोलकाता में पोस्ट आफिस सेविंग्स बैंक बनाया गया. ब्रितानी राज के तहत सरकार ने नेशनल सेविंग्स सेंट्रल ब्यूरो बनाया था जो लोगों को बचतों के लिए प्रेरित करता था. आजादी के बाद 1948 में नेशनल सेविंग्स ऑर्गनाइजेशन बना जिसका काम बचत का अभियान शुरु करना था इसके बाद ही छोटी बचत स्कीमों का दौर शुरु हुआ था कि क्यों तब तक सरकारों को पता चल गया था कि लोग अगर बचायेंगे तभी देश का काम चलेगा.
बचतों को बढ़ाने का वक्त लौटाना होगा. बचतें हमेशा सरकारी प्रोत्साहन से बढ़ती हैं. बाजार से ब्याज देना और बचत के लिए इनकम टैक्स में रियायत. पता नहीं वित्त मंत्रियों को क्या सूझा बीते एक दशक में बचत पर टैक्स प्रोत्साहन बंद कर दिये गए. छोटी बचतों पर ब्याज दर भी घटा नतीजा यह है आज देश वित्तीय सुरक्षा जोखिम में है. अगर वित्त मंत्री हकीकत से गाफिल नहीं हैं तो फिर उन्हें इस बजट में छोटी बचतों के बड़े प्रोत्साहन घोषित करने चाहिए. पूंजी बाजार में निवेश पर टैक्स कम करना चाहिए और बैंक जमा पर टैक्स में रियायत देनी चाहिए, भारत के पास महंगाई को हराने वाले बचत विकल्प नहीं हे. बढ़ती ब्याज दरों के बीच एक कोई उत्पादन यानी एंटी इन्फ्लेशन बांड लाना अब जरुरी हो गया है. मनी 9 के सर्वे की तरफ लौटते हैं. भारत में 50 फीसदी परिवार अपनी कमाई का दस फीसदी भी नहीं बचा पाते. उन्हें बचत के लिए सरकार का सहारा चाहिए, जो प्रोत्साहन और सही उत्पादों के तौर मिल सकता है जबकि इन लोगों से ज्यादा सरकार को इन लोगों की बचत चाहिए.
यानी कि जब सब बचायेंगे तब सब बचेंगे