भारतीय मौसम विभाग ने कहा है कि इस साल जून-सितंबर के बीच मानसून मौसम के दौरान अल नीनो के 90 फीसदी आशंका है. अल नीनो में सामान्य से कम बारिश होती है. इससे पहले भी अल नीनो के दौर में भारत में औसत से कम बारिश हुई थी, जिस वजह से सरकार को कुछ खाद्यान्नों के निर्यात को सीमित करना पड़ा था. भारत में कम मानसून चावल, गेहूं, गन्ना, सोयाबीन और मूंगफली जैसी प्रमुख फसलों को प्रभावित करता है. साथ ही मानसून का यह मिजाज फसलों की बुवाई और कटाई यानी हार्वेस्ट दोनों को उलट पुलट कर देता है. किसानों की आय पर भी बुरा असर पड़ता है जो बदले में विनिर्मित उत्पादों की ग्रामीण मांग को प्रभावित करती है.
आईएमएफ के एक अध्ययन से पता चला है कि गेहूं का प्रमुख निर्यातक ऑस्ट्रेलिया, चावल का प्रमुख उत्पादक और ताड़ के तेल का निर्यातक इंडोनेशिया जैसी अर्थव्यवस्थाएं अल नीनो के कारण बुरी तरह से प्रभावित होती हैं जो अंतरराष्ट्रीय बाजारों में खाद्य कीमतों को बढ़ा सकती हैं. भारत पर भी अल नीनो का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ने की उम्मीद है. ऐतिहासिक आंकड़ों से पता चलता है कि अगर अल नीनो मजबूत या मध्यम तीव्रता स्तर का होता है तो भारत में कम वर्षा होने की लगभग 70 फ़ीसदी संभावना बनती है.
खेती के अलावा ये स्थिति अर्थव्यवस्था पर भी व्यापक रूप से प्रभाव डालती है और खाद्य कीमतों में बढ़ोतरी के साथ खपत और बाद में उधार दरों में भी इज़ाफ़ा होता है. बाजार भी इस घटना पर बारीकी से नजर रखेगा, क्योंकि यह मुद्रास्फीति, ब्याज दरों, कम औद्योगिक उत्पादन और कम कर संग्रह सहित जैसे कई मोर्चों पर इसका असर होगा जो घाटे को बढ़ाएगा.
सरकार की तैयारी
सूखे की आशंका को देखते हुए सरकार कुछ प्रयास करने में भी लगी है. भारत पहले ही बर्मा के साथ दाल के लिए बातचीत कर रहा है जो एक अच्छा संकेत है. इससे आपूर्ति बढ़ेगी और कीमतें नियंत्रित होंगी. लेकिन अगर ऐसा होता है तो किसानों की आय अभी भी दबाव में रहेगी. वहीं मध्यावधि उपाय है खेती में शोध को पूरी तरह बदलना. भारत को अब बदलते पर्यावरण के हिसाब से बीजों की नई किस्मे लानी होंगी. सबसे पहली जरुरत ऊंचे तापमान पर पकने पाले गेहूं हो लेकर क्योंकि यह दूसरा साल जब गर्मियां जल्दी शुरु हो रही हैं. ठीक इसी तरह सब्जियों, मक्का और दलहन की नई किस्मों का करना होगा जो कम से कम समय में तैयार हो सकें.