मौजूदा समय में शून्य बजट प्राकृतिक खेती यानी ZBNF जैसी पारंपरिक कृषि पद्धतियों को बड़े पैमाने पर अपनाने की वजह से चावल और गेहूं जैसी प्रमुख फसलों के उत्पादन पर असर पड़ने की आशंका है. नाबार्ड और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (ICRIER) के एक संयुक्त अध्ययन में यह बात सामने आई है. दरअसल, ZBNF का लक्ष्य उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को कम करने के साथ ही मिट्टी को उपजाऊ करके टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देना है.
अध्ययन में आईसीएआर से संबद्ध भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान के तीन साल के क्षेत्रीय प्रयोग का हवाला दिया गया है. अध्ययन में गेहूं के उत्पादन में 59 फीसद और बासमती चावल के उत्पादन में 32 फीसद की गिरावट का अनुमान लगाया गया है. अध्ययन में कहा गया है कि उत्पादकता खाद्य सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है. मौजूदा समय में परंपरागत कृषि विकास योजना की उप योजना भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति को कृषि मंत्रालय के द्वारा 2020-21 से कार्यान्वित किया जा रहा है. इसके तहत ZBNF समेत पारंपरिक स्वदेशी प्रथाओं को बढ़ावा देने पर केंद्रित किया जाता है.
अध्ययन में सुझाव दिया है कि कृषि मंत्रालय से संबद्ध राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र ZBNF के लिए वैज्ञानिक रूप से मान्य प्रोटोकॉल विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. अध्ययन में कहा गया है कि जिन खास बाजारों में जैविक खेती और प्राकृतिक खेती सफल हैं वहां पर ज्यादा भाव कम पैदावार से होने वाले रिटर्न की भरपाई कर सकती है. जैविक की ओर पूरी तरह से शिफ्ट होने की वजह से राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन में बाधा उत्पन्न हो सकता है. सब्सिडी वाले यूरिया के ज्यादा उपयोग की वजह से मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट से निपटने के लिए अध्ययन में किसानों को बाजार मूल्य पर उर्वरक खरीदने के लिए 5000 रुपये से 10,000 रुपये प्रति हेक्टेयर सीधे अकाउंट में ट्रांसफर किए जाने का सुझाव दिया गया है. अध्ययन में कहा गया है कि सब्सिडी सीधे किसानों के बैंक खातों में ट्रांसफर होने की वजह से किसानों को खेती का तरीका चुनने की आजादी मिलेगी.