Women’s Property Rights: देश में महिला अधिकारों और सशक्तिकरण की जोरशोर से बात होती है. न्यायपालिका से लेकर सरकारों तक इस दिशा में लगातार प्रयास भी किए जा रहे हैं और तकरीबन हर सेक्टर में महिलाओं के अधिकार सुरक्षित भी हुए हैं.
लेकिन, जब बात पैतृक संपत्ति की आती है तो बड़े तौर पर देखा गया है कि ज्यादातर महिलाओं के लिए इस संपत्ति को हासिल करना मुश्किल भरा होता है. भारतीय संस्कृति, परंपरा और सामाजिक तौर–तरीकों में यह एक आम बात मानी जाती है कि जब एक बार महिला की शादी हो गई तो उसके मां–बाप की अर्जित की गई संपत्ति (Women’s Property Rights) में उसका कोई हक नहीं होता है.
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (2005) में संशोधन हुए 15 साल गुजर चुके हैं, लेकिन बड़ी तादाद में ऐसी महिलाएं हैं जो कि पैतृक संपत्ति को लेकर अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं. इनमें पढ़ी–लिखी महिलाएं भी शामिल हैं.
लेकिन, कई दफा अलग–अलग वजहों से महिलाओं की वित्तीय स्थिति बेहद खराब हो जाती है. महिलाओं के सामने ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं जहां उनके पास जीवन जीने लायक पूंजी या संपत्ति नहीं होती है. ऐसे वक्त में पैतृक संपत्ति महिलाओं के काम आ सकती है.
जानकारों का कहना है कि बड़े पैमाने पर यह समस्या मौजूद है. बड़ी तादाद में महिलाएं विवाह के बाद पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकारों को छोड़ देती हैं.
फिनस्कोलार्ज की को–फाउंडर और सर्टिफाइड फाइनेंशियल प्लानर रेणु माहेश्वरी कहती हैं, “महिलाओं को दोनों तरह से नुकसान है. पिता की संपत्ति में वे शादी के बाद अपना हक छोड़ देती हैं, जबकि पति की संपत्ति को लेकर भी उनके कोई साफ अधिकार नहीं हैं.”
दरअसल, संविधान के आर्टिकल 14 और 15 में महिलाओं के खास दर्जे की बात की गई है. आर्टिकल 15(3) में ये कहा गया है कि केंद्र और राज्य महिलाओं के लिए विशेष अधिकार बना सकते हैं क्योंकि उन्हें सुरक्षा दी जानी जरूरी है.
माहेश्वरी महिलाओं की विशेष स्थितियों का जिक्र करती हैं. वे कहती हैं, “भले ही महिलाओं ने बाहर निकलकर काम करना शुरू कर दिया है, लेकिन उन्हें घर और दफ्तर की दोहरी जिम्मेदारियों को निभाना पड़ता है. सीमित आमदनी के साथ उनकी बचत भी सीमित ही होती है और ज्यादातर मामलों में महिलाओं के पास आर्थिक सुरक्षा लायक पूंजी नहीं होती है. दूसरी ओर, होम मेकर महिलाओं को उनके काम का कभी कोई भुगतान नहीं होता है.”
वे कहती हैं कि घरेलू कामकाज का 67 फीसदी से ज्यादा हिस्सा महिलाएं करती हैं, लेकिन उनकी आमदनी केवल 10 फीसदी है. साथ ही दुनिया की कुल संपत्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी महज 1 फीसदी है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील शाश्वत आनंद कहते हैं, “भारत में महिलाओं के संपत्ति के अधिकारों को देखा जाए तो मोटे तौर पर ये अलग–अलग धर्म के हिसाब से तय किए गए हैं.”
वे कहते हैं कि मसलन, अगर आप हिंदुओं में महिलाओं के अधिकार देखें तो 1937 में महिलाओं को पहली बार संपत्ति में अधिकार देने की बात की गई थी. ये संयुक्त परिवार जिसे हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) के लिए बनाए गए थे. 1937 के कानून में पति की मौत के बाद पत्नियों को संपत्ति में सीमित अधिकार दिया गया था.
इसके बाद 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम आया. इसमें कुछ बदलाव किए गए. हालांकि, इस कानून में यह कहा गया था कि बेटियों, विधवाओं, मांओं आदि को पिता की संपत्ति में अधिकार मिलेगा. इस कानून के मुताबिक महिला का पैतृक संपत्ति में कोई हक नहीं था.
इसके बाद 2005 में कानून में संशोधन किया गया. गौर करने की बात ये है कि इस कानून में संशोधन आने में 1956 से 2005 तक करीब 50 साल का वक्त लग गया.
2005 के संशोधन में हिंदू महिलाओं को उनकी पैतृक संपत्ति में हक देने की बात की गई.
हालांकि, शाश्वत आनंद कहते हैं, “अभी भी बड़े तौर पर यह सैद्धांतिक तौर पर ही लागू है और सामाजिक और दूसरी वजहों से ज्यादातर महिलाएं अपने इस हक का त्याग कर देती हैं.”
वे कहते हैं कि इसमें कानून में एक बड़ी गड़बड़ी इस बात को लेकर है कि महिला को उसके पिता की संपत्ति में तो अधिकार दिया गया है, लेकिन पति की संपत्ति में अधिकारों को लेकर स्पष्टता नहीं है. पति के जीवित रहते हुए महिला उसकी संपत्ति में अधिकार नहीं हासिल कर पाती है.
मुस्लिमों में महिलाओं के अधिकार
एडवोकेट शाश्वत आनंद कहते हैं कि मुस्लिमों में महिलाओं के संपत्ति के अधिकार शरियत एक्ट, 1937 के मुताबिक चलते हैं. मुसलमानों में अविवाहित महिला को पुरुष के अधिकार का आधा हिस्सा मिलता है.
वे कहते हैं, “दूसरी तरफ, तलाकशुदा महिला को पति की संपत्ति का एक–चौथाई हिस्सा मिलता है. अगर महिला के बच्चे हैं तो उसका हक 1/8 रह जाता है.”
ईसाई और पारसियों में क्या है कानून?
ईसाइयों और पारसियों में महिलाओं के संपत्ति से जुड़े हुए अधिकार इंडियन सक्सेशन एक्ट, 1925 के हिसाब से तय होते हैं. इसमें महिलाओं के साथ कोई भेदभाव नहीं किया गया है. इस लिहाज से सबसे बेहतर ये ही कानून माना जा सकता है.
जागरूकता का अभाव
आनंद कहते हैं कि महिलाओं को पैतृक या पति की संपत्ति में हक नहीं मिल पाने की बड़ी वजह यह है कि उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है.
दूसरी बड़ी दिक्कत ये है कि महिलाएं संपत्ति में हक की मांग के लिए कोर्ट का रुख करने से हिचकती हैं.
आनंद कहते हैं कि महिलाओं को हक का मसला किसी भी धर्म से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए. इसका एक तरीका ये है कि सबसे के लिए एक जैसे कानून हों ताकि किसी भी धर्म में भेदभाव न हो सके.
माहेश्वरी कहती हैं कि इस मामले में उत्तर और दक्षिण में बड़ा अंतर दिखाई देता है. वे कहती हैं कि महिलाओं को पैतृक संपत्ति न दिए जाने के मामले में देश के उत्तरी हिस्सों में हालात ज्यादा खराब हैं.
माहेश्वरी कहती हैं कि अभी भी कानून लड़कों के हक में ज्यादा हैं. इससे भी ज्यादा सामाजिक कानूनों ने महिलाओं के लिए आर्थिक आजादी की राह को मुश्किल बना रखा है.
वे ऐसे कई उदाहरणों को बताती हैं जहां पर महिलाओं को मुश्किलें उठानी पड़ी हैं. वे बताती हैं कि उनकी एक क्लाइंट ने पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार के बारे में कहा, “जिस दिन मैं अपने अधिकारों के बारे में कहूंगी, उसी दिन मेरे लिए कोई मायका नहीं बचेगा.”
आनंद कहते हैं कि हर साल बड़ी संख्या में ऐसे मामले आते हैं जहां पर घर से निकाले जाने या पति के मरने के बाद महिलाओं की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो जाती है. ऐसे हालात में अगर वे अपने अधिकारों के लिए जागरूक रहें और संपत्ति के अपने हक को हासिल करें तो बाद की मुश्किलों से वे बच सकती हैं.
एक्सपर्ट कहते हैं कि पैतृक संपत्ति एक महिला का हक है, और उसकी मांग करने में कोई बुराई नहीं है. खासतौर पर अपने भविष्य की वित्तीय सुरक्षा के लिहाज से यह जरूरी है.
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