सेवा शुल्क (सर्विस चार्ज) और सेवा कर (सर्विस टैक्स) एक नहीं होते, एक आम उपभोक्ता को यह अंतर समझना बेहद जरूरी है. खास तौर पर वह उपभोक्ता जो नियमित तौर पर रेस्त्रां जाता है और खासी रकम चुकाता है. क्या आपने गौर किया कि कई रेस्त्रा में मेन्यू पर साफ तौर पर लिखा होता है कि वह ‘सर्विस चार्ज’ (सेवा शुल्क) लेते हैं, जो आम तौर पर कुल बिल का 20 फीसदी तक हो सकता है. चूंकि यह बिल में खाने-पीने के सामान की कीमत के कुल योग के बाद जीएसटी के साथ लिखा जाता है, इसीलिए लोगों को लगता है कि यह भी एक तरह का कर है. कई उपभोक्ता तो इसे सर्विस टैक्स यानी सेवा कर तक मान लेते हैं.
यहीं पर भ्रम की स्थिति है. सबसे पहले तो यह समझ लीजिए कि सेवा शुल्क चुकाना आपकी इच्छा पर निर्भर होता है, कोई रेस्त्रां इसके लिए आपको विवश नहीं कर सकता है. मेन्यू पर लिख देने का यह मतलब नहीं है कि यह कोई सरकारी नियम है. हां रेस्त्रां वालों की यह दलील होती है कि वो आपके पहले ही आगाह कर रहे हैं कि वो सेवा शुल्क लेते हैं, आप नहीं देना चाहते तो किसी और जगह जाने के लिए स्वतंत्र है.
दरअसल, कई बार जब आप रेस्त्रां में जाते हैं तो आपका लक्ष्य अच्छा समझ बिताना होता है और उसमें कोई बिघ्न ना पड़े, लिहाजा सेवा शुल्क चुका देते हैं औऱ रेस्त्रां वाले इसे मानसिकता का आपका फायदा उठाते हैं. जीएसटी से जो कमाई होती है, वो सरकारी खजाने में जाता है और सेवा शुल्क से जो कमाई होती है वो रेस्त्रां मालिक के पास. वो दावा करते हैं कि जो कुछ भी सेवा शुल्क से आमदनी होती है, वो वेटर, रसोइयां, सफाई करने वाले औऱ यहां तक की गेटकीपर व दूसरे कर्मचारियों के बीच बांट देते हैं. सच पूछिए तो यह एक कमजोर दलील है. कोई भी रेस्त्रां मालिक यह नहीं बताता कि एक महीने के दौरान सेवा शुल्क से कितनी कमाई हुई है और कितनी-कितनी रकम उसने कर्मचारियों को दी.
रेस्त्रां मालिक जो खाने-पीने के सामान की कीमत लेता है, उसमें उसे तैयार करने से लेकर परोसने, कर्मचारियों की तनख्वाह पर होने वाले खर्च और उसका मुनाफा, सब शामिल होता है. अब इसके ऊपर आपसे कहा जाए कि आप सेवा शुल्क के रूप में अतिरिक्त रकम दें, वो कहां तक सही है? अगर कोई ग्राहक सेवा से खुश है, संतुष्ट है तो यह उसकी इच्छा पर छोड देनी चाहिए कि वो वेटर को कितना टिप देता है या भी असंतुष्ट होने पर ना दे.
सरकारी व्यवस्था में सेवा शुल्क को कानूनी मान्यता नहीं मिली हुई है. इस बारे में अप्रैल 2017 में उपभोक्ता मामलात मंत्रालय ने उचित व्यावार व्यवस्था को लेकर दिशानिर्देश जारी किए जिसमें साफ कहा गया कि सेवा शुल्क वैकल्पिक है और इसे चुकाना या नहीं चुकाना. चूंकि संविधान की व्यवस्था के मुताबिक रेस्त्रां के लिए कायदे-कानून की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है, इसीलिए केंद्र ने राज्यों को सलाह भी जारी कर कहा कि वो सेवा शुल्क को लेकर कंपनियों, होटल, रेस्त्रां वगैरह को लेकर बताए. साथ ही यह सलाह भी होटल, रेस्त्रां वगैरह को दे कि वो अपने यहां सूचना अच्छी तरह से प्रकाशित करें कि सेवा शुल्क स्वैच्छिक है और कोई ग्राहक सेवा से संतुष्ट नहीं है तो वो इसे हटवा सकते हैं.
दूसरी ओर कई रेस्त्रां मालिकों ने सेवा शुल्क को कानूनी जामा पहनाने का जुगाड़ ढ़ुढ़ लिया. सेवा शुल्क को खाने-पीने के सामान से जुड़ी रकम में जोड़ दिया गया और फिर उसपर जीएसटी लगाया जाने लगा. रेस्त्रां मालिकों की राय में यह कानूनी तौर पर सही है. यह बात सही है कि कानून पहले देखता है कि जो रकम बिल में दिखायी गयी है, उस पर कर वसूला गया या नहीं. रकम किस रुप में ली गयी, वो अलग विषय बन जाता है.
तो आपके पास क्या विकल्प है? तीन. एक, जब किसी रेस्त्रा में जाएं तो सेवा शुल्क को लेकर स्थिति स्पष्ट कर लें. मेन्यू पर लिख देना कोई पत्थर की लकीर नहीं और अगर रेस्त्रां मैनेजर जिद्द पर हो तो किसी दूसरे रेस्त्रां जाना बेहतर होगा. दो, अगर आपने सेवा शुल्क की जानकारी नहीं ली तो बिल आ जाने पर गौर से देखिए कि वहां सेवा शुल्क का जिक्र है और क्या उसपर जीएसटी भी लगाया गया है, आप वहां रेस्त्रा प्रबधंन से बिल में दोनों ही मामलो में बदलाव करने को कह सकते है और यह आपका हक है. तीन, अगर फिर भी रेस्त्रां आपसे सेवा शुल्क ले ले तो उपभोक्ता अदालत का विकल्प है. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1019 के तहत तीन स्तर पर – केंद्र, राज्य और जिला स्तर पर उपभोक्ता अदालते काम करती है, आप जिला आयोग का दरवाजा खटखटा सकते हैं.
याद रहे रेस्त्रा में खाने-पीने के बाद बिल आए तो महज यह मत देखिए कि कितनी रोटी जोड़ी गयी है या दाल उतनी ही संख्या में है जितनी आपने मंगवाई या फिर कोई ऐसा आइटम तो नहीं जो आपने खाया ही नहीं, यह भी देखिए कि सेवा शुल्क कितना लगाया गया है और उस पर जीएसटी तो नहीं लग रहा. इसके खिलाफ आवाज उठाएं, तभी आप जागरूक ग्राहक कहलाएंगे.
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