बदनीयत कारोबारियों के लिए कुछ ऐसा ही संदेश लेकर आई थी दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता. उद्देश्य भी स्पष्ट थे. जो धंधा चलाने में असमर्थ हैं वे कारोबार बंद सके ठप पड़े कारोबार में फंसी संपत्तियों का इस्तेमाल हो सके और बैंकों के फंसे कर्ज की वसूली की जा सके, लेकिन अर्थव्यवस्था में छाई मंदी और अदालती चक्करों से देरी होने के कारण इस कानून की चमक अब फीकी पड़ रही है.
बैंकों के फंसे कर्ज की वापसी सिर्फ एक तिहाई ही रही. कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय के राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने हाल में ही संसद को बताया कि 31 दिसंबर 2021 तक IBC के तहत कुल 457 मामले निपटाए जा चुके हैं. 444 कंपनियों के उपलब्ध आंकड़े के मुताबिक कुल 7.54 लाख करोड़ रुपए के दावे पेश हुए इसमें से बैंकों को रिकवरी में 2.5 लाख करोड़ रुपए मिले.
अक्टूबर से दिसंबर 2021 वाली तिमाही सबसे ज्यादा खराब रही. लेनदारों के हाथ केवल 13.41 फीसद की ही राशि आई. कुल 32861.90 करोड़ के दावे पेश हुए जिनमें कुल 4406.76 करोड़ रुपए ही मिल सके.
चार्टर्ड एकाउंटेंट अंकित गुप्ता कहते हैं, ”रिकवरी के सुस्त हो जाने की दो बड़ी वजह हैं. पहली अदालती चक्करों की वजह से दावों के निपटान में देरी होना और दूसरी अर्थव्यवस्था में छाई मंदी के कारण कंपनियों की क्षमता भी प्रभावित हुई है. जिस वजह से फंसी हुई कंपनियों को खरीदने में रुचि नहीं दिखा रहीं.”
नियम के अनुसार 270 दिनों के भीतर किसी कंपनी की दिवालिया प्रक्रिया को पूरा करना होता है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 73 फीसद मामलों में यह समयसीमा पार हो जाती है. बैंक अधिकारी बताते हैं कि एनसीएलटी में एप्लीकेशन देने के साथ ही कार्यवाही में विलंब का सिलसिला शुरू हो जाता है.
बड़ी कंपनियों की नजीरें सामने हैं. सुपरटेक जो अभी हफ्ते भर पहले दिवालिया घोषित हुई है उसका मामला दिसंबर 2019 से लंबित था. जयप्रकाश एसोसिएट का मामला तो सिंतबर 2018 से IBC के तहत दर्ज है. जेपी इंफ्रा जिसपर कार्यवाही के लिए खुद बैंकिंग नियामक RBI ने IBC को निर्देश दिया था यह मामला बीते 5 साल से लंबित है.
यह विलंब ही है जिसकी वजह से IBC की सफल कहानी में असफलताओं के अध्याय जुड़ रहे और इसका आकर्षण कम हो रहा.