महामारी ने देश पर एक अभूतपूर्व प्रभाव डाला है, लेकिन महिलाओं ने विशेष रूप से भारी कीमत चुकाई है. लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि का सीधा अर्थ यह है कि भारतीय महिलाओं को घरों में दुर्व्यवहार झेलना पड़ा. उनमें से कुछ ने तो इस वजह से वैक्सीन भी नहीं लगवाई, क्योंकि इसके बाद आने वाला बुखार कुछ दिन तक उन्हें घरेलू कामकाज करने से रोक देता.
बड़ी संख्या में भारतीय घरों में परिवार, रसोई, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल करने की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर होती है. महामारी के दौरान महिलाओं पर जो स्थिति गुजरी होगी, उस पर इससे ज्यादा दयनीय टिप्पणी कुछ नहीं हो सकती. राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि लॉकडाउन लागू होने के बाद से घरेलू हिंसा में तेजी आई है.
सामाजिक भेदभाव पूरी तस्वीर को व्यक्त नहीं करता है. देश की महिलाएं अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में भी पुरुषों की तुलना में अधिक पीड़ित हैं. रिपोर्ट्स के अनुसार, भविष्य निधि संगठन के आंकड़ों से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2021 में महिलाओं के शुद्ध नामांकन में 12.3% की गिरावट आई, जबकि पुरुषों के नामांकन में 0.63% की वृद्धि हुई है. चालू वित्त वर्ष से संबंधित आंकड़ों से पता चला है कि पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए नए नामांकन में पिछले साल की तुलना में 23% की गिरावट आई है, लेकिन औपचारिक रोजगार से अधिक संख्या में महिलाएं बाहर हुई हैं. औपचारिक रोजगार से बाहर जाने वाले 8.4 लाख व्यक्तियों में से दो तिहाई महिलाएं थीं.
अगर आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के साथ घर और कार्यस्थल दोनों जगह अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा, तो यह देश की अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. यदि भारत को स्थायी आधार पर दो अंकों की विकास दर हासिल करनी है, तो महिला सशक्तिकरण को शिक्षित मध्यम वर्ग से आगे व्यापक रूप से ले जाना होगा, जहां यह संकट की इस घड़ी में सीमित लगता है.